श्रीकृष्ण की प्रमुख 5 प्रेरणादायक बाल लीलाएँ और उनका गूढ़ संदेश

श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति का ऐसा अद्भुत चरित्र हैं, जिनकी बाल लीलाओं में न केवल अलौकिक चमत्कार छिपे हैं, बल्कि नैतिक शिक्षा, साहस, करुणा और धैर्य जैसे गुण भी समाहित हैं। श्रीकृष्ण की बाल लीलाएं बच्चों के मन में भक्ति, संस्कार और चरित्र निर्माण की नींव रखती हैं। जन्माष्टमी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि यह एक सुनहरा अवसर है, बच्चों को श्रीकृष्ण के जीवन से परिचित कराने का, उनके अद्भुत कार्यों से प्रेरित करने का। इस लेख में हम श्रीकृष्ण की 5 सबसे प्रेरणादायक बाल लीलाओं का वर्णन करेंगे जिन्हें जन्माष्टमी पर बच्चों को अवश्य सुनाना चाहिए।

1 : पूतना वध

जब श्रीकृष्ण का जन्म कारागार में हुआ और योगमाया ने कंस को चेतावनी दी कि उसका वध करने वाला बालक अब सुरक्षित गोकुल पहुँच चुका है, तब कंस के भीतर भय उत्पन्न हुआ। उसने वसुदेव और देवकी को मुक्त तो कर दिया, लेकिन तुरंत अपने क्रूर मन्त्रियों से सलाह लेने लगा। मन्त्रियों ने कंस को यह सलाह दी कि अब उसे ब्राह्मणों के यज्ञ बंद करवा देने चाहिए, देवताओं का संहार करना चाहिए और जो भी शिशु पिछले दस दिनों में जन्मे हैं उन्हें ढूँढ-ढूँढकर मार डालना चाहिए।

इसी योजना के अंतर्गत कंस ने पूतना नाम की एक घातक राक्षसी को गोकुल भेजा। पूतना मायावी शक्तियों से युक्त थी। उसने एक अत्यंत सुंदर स्त्री का रूप धारण किया, ऐसा रूप जो किसी को भी भ्रम में डाल दे। वह आकाश मार्ग से उड़ती हुई गोकुल आई और नंदबाबा के घर सीधे जा पहुँची, जहाँ श्रीकृष्ण शिशु रूप में सो रहे थे।

उसकी सुंदरता देखकर यशोदा और रोहिणी तक मोहित हो गईं और उन्होंने उसे बालक को गोद में लेने से नहीं रोका। पूतना ने शिशु श्रीकृष्ण को गोद में उठाया और उसे अपना स्तनपान कराने लगी, परंतु उसके स्तनों पर भयानक विष (हलाहल) लगा हुआ था।

श्रीमद्भागवत महापुराण (दशम स्कंध, अध्याय 6, श्लोक 7-8)
“तां स्तन्यपीयुषमयीं मृत्युमात्मसमं विभुः।
लोकनाथोऽपि बालत्वाद्योषिद्वत् प्रातिपद्यत॥”

अर्थ: श्रीकृष्ण, जो सम्पूर्ण लोकों के स्वामी हैं, बालरूप में भी उस पूतना के स्तन का पान करने लगे, जो अमृतमयी प्रतीत होती थी, किन्तु वास्तव में मृत्यु के समान विषैली थी।

परंतु श्रीकृष्ण तो सर्वज्ञ और अंतर्यामी थे। उन्होंने न केवल उसका दूध पिया, बल्कि उसके प्राण भी खींच लिये। जैसे-जैसे श्रीकृष्ण ने उसका दुग्धपान किया, पूतना को असहनीय पीड़ा होने लगी। वह चीख-चीखकर कहने लगी, “अरे छोड़ दे! बस कर!” और धरती पर गिर पड़ी। उसका असली राक्षसी रूप प्रकट हो गया — विशाल शरीर, विकराल मुख और भयानक स्वरूप।

यशोदा, रोहिणी और गोपियाँ दौड़ीं और देखा कि श्रीकृष्ण उस मरी हुई राक्षसी की छाती पर खेल रहे हैं। बाद में ग्वालों ने पूतना के विशाल शरीर को काटकर गाँव से बाहर जला दिया।

संदेश: यह लीला सिखाती है कि सच्चा भक्त अपने शरणागत की रक्षा करता है, चाहे शत्रु कितना ही मायावी क्यों न हो।

2 : ‘मणिग्रीव’ और ‘नीलकूबर’ पर कृपा

एक दिन जब माता यशोदा रसोई में काम कर रही थीं, उन्होंने ताजे मक्खन को मथकर एक पात्र में रखा और कुछ क्षण के लिए भीतर चली गईं। इसी अवसर का लाभ उठाकर नटखट बालक कृष्ण ने वह मक्खन चुपचाप उठा लिया और स्वयं कुछ खाया, फिर शेष मक्खन वानरों को खिलाने लगे।

जब यशोदा लौटकर आईं तो मक्खन गायब पाया और मक्खन खाते तथा वानरों को बाँटते कृष्ण को देखकर क्रोधित हो गईं। उन्होंने कृष्ण को दंड देने के लिए रस्सी से बाँधने का निश्चय किया, परंतु यह क्या! वे जितनी रस्सियाँ लातीं, वह सब छोटी पड़ जातीं।

श्रीकृष्ण की यह माया देखकर माता यशोदा अचंभित हो गईं, पर उनके प्रेम और प्रयास से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने स्वयं ही अपनी माया को समेट लिया और रस्सी को लंबा कर दिया। तब माता यशोदा ने उन्हें एक भारी ऊखल से बाँध दिया और घर के अन्य कामों में लग गईं।

इधर बंधे-बंधे कृष्ण खेलते हुए ऊखल को खींचकर बाहर ले गए। वहाँ आँगन के पास दो विशाल पेड़ थे, जिन्हें ‘यमलार्जुन’ कहा जाता था। वे दो देवपुत्र — मणिग्रीव और नीलकूबर — का ही रूप थे, जिन्हें पूर्व जन्म में देवर्षि नारद द्वारा उद्दण्डता और अहंकार के कारण वृक्ष बन जाने का शाप मिला था।

नारदजी ने उन्हें यह भी वरदान दिया था कि द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं उनके उद्धार हेतु आएँगे। इन दोनों को अपने पूर्वजन्म की स्मृति थी, अतः वे वर्षों से वृक्षरूप में रहते हुए भी श्रीकृष्ण का ध्यान करते थे।

जब कृष्ण ऊखल को खींचते हुए इन दोनों वृक्षों के बीच से निकले तो ऊखल वहाँ फँस गया। उन्होंने पूरी शक्ति से ऊखल को खींचा तो दोनों वृक्ष भयानक गर्जना के साथ धराशायी हो गए।

पेड़ों के गिरते ही उनमें से तेजस्वी रूप में दो दिव्य पुरुष प्रकट हुए और भगवान श्रीकृष्ण को नमन कर उनके चरणों में गिर पड़े। उन्होंने अपने अपराध के लिए क्षमा माँगी और बताया कि वे कुबेर के पुत्र हैं, जिन्हें नारदजी के शाप से यह स्वरूप मिला।

श्रीकृष्ण ने उन्हें मुस्कराते हुए क्षमा किया और आशीर्वाद दिया, जिससे वे मुक्त होकर पुनः अपने दिव्य लोक को लौट गए। इस घटना को देखकर ब्रजवासियों को अत्यंत आश्चर्य हुआ।

श्रीमद्भागवत महापुराण (दशम स्कंध, अध्याय 10, श्लोक 25)
“नमो नमस्तेऽखिलकारणाय
निष्कारणायाद्भुतकारणाय।
सर्वागमानामपि सिद्धिदाय
सर्वात्मने तेऽखिलात्मरूपाय॥”

अर्थ: हे प्रभु! आपको बार-बार नमस्कार है, आप समस्त कारणों के भी कारण हैं, अद्भुत कारण हैं, समस्त आगमों के सिद्धिदाता हैं और समस्त जीवों में व्याप्त हैं।

संदेश: अहंकार में डूबा व्यक्ति भी प्रभु की कृपा से सुधर सकता है।

3 : बकासुर का वध

मथुरा का अत्याचारी राजा कंस निरंतर इस प्रयास में लगा रहता था कि किसी भी प्रकार से श्रीकृष्ण का वध कर सके, किंतु उसके सारे उपाय निष्फल हो रहे थे। एक के बाद एक राक्षस श्रीकृष्ण द्वारा मारे जा रहे थे। इसी श्रृंखला में उसने एक और दैत्य को भेजा, जो इस बार बगुले का रूप धारण कर आया।

अपनी बगुला जैसी आकृति के कारण वह ‘बकासुर’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसका उद्देश्य था — किसी भी प्रकार श्रीकृष्ण को समाप्त करना।

दोपहर का समय था। श्रीकृष्ण ने गऊओं को जंगल में चरा लिया था और भोजन के बाद एक वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे थे। कुछ ग्वाल-बाल जल पीने के लिए यमुना नदी की ओर गए। तभी वहाँ एक विशाल बगुले जैसे राक्षस को देखकर वे भय से चीत्कार कर उठे। उसकी चोंच बहुत लंबी थी, आँखें विकराल थीं और उसका आकार सामान्य पक्षियों से कई गुना बड़ा था।

ग्वाल-बालों की चीख सुनकर श्रीकृष्ण तुरंत उठ खड़े हुए और बिना किसी हिचकिचाहट के उस दिशा में दौड़ पड़े, जहाँ से शोर आ रहा था। यमुना तट पर पहुँचते ही श्रीकृष्ण ने उस बकासुर को देख लिया और वे तुरंत समझ गए कि यह साधारण जीव नहीं, बल्कि कोई मायावी दैत्य है।

श्रीकृष्ण के नेत्रों में तेज फैल गया और उनके भीतर ऊर्जा की लहर दौड़ गई। वे बिना डरे बकासुर के पास जा पहुँचे और उसकी गरदन पकड़ ली। देखते ही देखते उन्होंने इतनी ज़ोर से उसकी गरदन मरोड़ दी कि उसकी आँखें बाहर निकल पड़ीं और वह अपने वास्तविक राक्षसी रूप में आकर धराशायी हो गया।

ग्वाल-बालों ने जब यह दृश्य देखा, तो वे आश्चर्यचकित रह गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि उनका प्रिय मित्र, नन्हा-सा कन्हैया, इतने विशाल और भयावह राक्षस को अकेले ही मार सकता है।

सन्ध्या होते-होते यह समाचार पूरे गोकुल में फैल गया और हर ओर श्रीकृष्ण की महिमा के गीत गाए जाने लगे। अब तो गोप-गोपियाँ भी उन्हें साधारण बालक नहीं, कोई दिव्य अवतार मानने लगीं।

विष्णु पुराण (पंचम अंश, अध्याय 7)
“स बालः सर्वलोकात्मा
बकासुरमथार्दयत्।
गृहीत्वा पिच्छिलं कण्ठं
पपात स निशाचरः॥”

अर्थ: समस्त लोकों के आत्मा भगवान श्रीकृष्ण ने बकासुर का गला पकड़कर उसे पीड़ा दी, जिससे वह गिर पड़ा।

संदेश: धर्म के मार्ग पर चलने वाले को भय से मुक्त रहना चाहिए, क्योंकि सत्य और साहस से हर संकट का सामना संभव है।

4 : गोवर्धन लीला

एक बार श्रीकृष्ण अपने ग्वाल सखाओं और गायों के साथ गोवर्धन पर्वत की ओर पहुँचे। उन्होंने देखा कि गोपियाँ बड़ी श्रद्धा से इन्द्र के पूजन के लिए 56 भोग सजाए हुए हैं और आनंदपूर्वक नाच-गाकर उत्सव मना रही हैं।

श्रीकृष्ण ने जिज्ञासा से पूछा तो बताया गया कि आज ‘इन्द्रोज यज्ञ’ है — वह दिन जब इन्द्र का पूजन होता है, जिससे प्रसन्न होकर वे वर्षा करते हैं और अन्न की भरमार होती है।

यह सुनकर श्रीकृष्ण ने तर्क किया कि इन्द्र से कहीं अधिक शक्तिशाली तो गोवर्धन पर्वत है, जिसकी छाया में हम पलते हैं, जहाँ हमारी गायें चरती हैं, और जिसकी वनस्पति हमें जीवन देती है। उन्होंने ब्रजवासियों को समझाया कि प्रकृति, गाय और गोवर्धन का पूजन अधिक सार्थक है।

काफी विचार-विमर्श के बाद सभी ने श्रीकृष्ण की बात मानी और गोवर्धन की पूजा का भव्य आयोजन हुआ। हर घर से पकवान लाकर गोवर्धन की तराई में उन्हें सजाया गया और श्रीकृष्ण के कहे अनुसार पर्वत की पूजा की गई।

श्रीकृष्ण ने स्वयं ‘गोवर्धन’ बनकर सबका अन्न-भोग स्वीकार किया। यह दृश्य देखकर वहाँ उपस्थित नारद मुनि ने सारा प्रसंग इन्द्र तक पहुँचा दिया। इन्द्र को यह भ्रम हो गया कि श्रीकृष्ण उसके सम्मान और अधिकार को चुनौती दे रहे हैं।

क्रोधित होकर इन्द्र ने आकाशीय मेघों को आज्ञा दी कि वे गोकुल में ऐसी वर्षा करें जो प्रलय ला दे। मूसलाधार वर्षा और तूफान से ब्रजवासी आतंकित हो उठे और शरण के लिए श्रीकृष्ण की ओर दौड़े।

श्रीकृष्ण ने तुरंत उन्हें गोवर्धन की तराई में चलने को कहा और फिर अपनी छोटी अंगुली पर पूरा पर्वत उठाकर उसे छत की तरह तान दिया। सात दिन तक लगातार वर्षा होती रही, परंतु सुदर्शन चक्र के प्रभाव से एक बूँद भी ब्रजवासियों को नहीं भिगो सकी।

यह अलौकिक चमत्कार देखकर इन्द्र का घमंड चूर हो गया। उसे अपनी भूल का एहसास हुआ और उसने श्रीकृष्ण से क्षमा माँगी। श्रीकृष्ण ने फिर गोवर्धन को यथास्थान रख दिया और ब्रजवासियों से कहा कि आगे से हर वर्ष इस दिन को ‘गोवर्धन पूजा’ और ‘अन्नकूट महोत्सव’ के रूप में मनाना चाहिए।

श्रीमद्भागवत महापुराण (दशम स्कंध, अध्याय 25, श्लोक 19)
“एकेनैवोपलभ्याङ्गुलिना चोत्थितो गिरिः।
बिभ्रत्सप्ताहमप्येवमग्न्यपः पवनं प्रभुः॥”

अर्थ: प्रभु ने केवल एक अंगुली से पर्वत उठाकर सात दिन तक जल, अग्नि और वायु से ब्रजवासियों की रक्षा की।

संदेश: यह लीला सिखाती है कि प्रकृति की रक्षा और अहंकार के दमन में ही सच्ची भक्ति है।

5 : शकटासुर वध

एक दिन जब नन्हे श्रीकृष्ण गहरी नींद में थे, माता यशोदा ने उन्हें आँगन में एक बड़े छकड़े के नीचे सुला दिया, ताकि धूप से बचाव हो और हवा भी मिलती रहे। इसके बाद वे यमुना स्नान के लिए चली गईं, परंतु उनका मन अशांत रहा।

चिंतित होकर वे जल्दी लौट आईं, और जैसे ही घर पहुँचीं, देखा कि वह भारी छकड़ा पूरी तरह से उलटा पड़ा है। उसके पहिए अलग, धुरी टूटी हुई और लकड़ी के टुकड़े बिखरे हुए थे। यह दृश्य देखकर उनका कंठ सूख गया, हृदय कांपने लगा कि कहीं उनका लाड़ला उस टूटे हुए छकड़े के नीचे दब तो नहीं गया।

भय और चिंता से व्याकुल होकर वे दौड़ पड़ीं, और जैसे ही छकड़े के समीप पहुँचीं, उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण उसी स्थान पर सुरक्षित सो रहे हैं। उन्होंने तुरंत उन्हें गोद में उठा लिया और हर्ष, आश्चर्य और भय के मिश्रित भावों से रोने लगीं।

वास्तविकता यह थी कि मथुरा का क्रूर राजा कंस निरंतर श्रीकृष्ण के वध का प्रयास कर रहा था, और उसी योजना के अंतर्गत उसने शकटासुर नामक एक राक्षस को भेजा था। यह असुर अपनी मायावी शक्ति से छकड़ों और भारी वस्तुओं में प्रवेश कर उनमें से वार करता था।

जब उसने श्रीकृष्ण को अकेले सोते देखा, तो छकड़े में समा गया और ऊपर से गिरकर उन्हें कुचलने की कोशिश की। लेकिन श्रीकृष्ण अंतर्यामी भगवान थे। उन्होंने खेलते-खेलते अपने नन्हे चरण से ऐसा प्रहार किया कि वह छकड़ा ही उलट गया और शकटासुर छिटक कर गिरा। उसका शरीर चूर-चूर हो गया और वहीं उसका अंत हो गया।

भगवान श्रीकृष्ण के चरणों से प्राप्त इस मोक्ष से वह पापी असुर भी यमलोक की बजाय स्वर्गलोक चला गया।

श्रीमद्भागवत महापुराण (दशम स्कंध, अध्याय 7, श्लोक 8)
“ततोऽपि पादेन बलेन बालः
शक्टं व्यतानोद्भगवान्समस्तः।
चूर्णीकृत्यैव तदाऽसुरेन्द्रं
स्वधाम गच्छन्नददात्स्वपद्यम्॥”

अर्थ: बालक रूप में भी सर्वशक्तिमान कृष्ण ने अपने चरणों के बल से उस शकटासुर को चूर्ण कर मोक्ष प्रदान किया।

संदेश: ईश्वर की शरण में रहने वाले का कोई भी संकट कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

निष्कर्ष

इन पाँच बाल लीलाओं में गूढ़ आध्यात्मिक और नैतिक संदेश छिपा है। ये केवल अलौकिक घटनाएँ नहीं, बल्कि यह प्रमाण हैं कि सच्चा भक्त, चाहे बालक ही क्यों न हो, ईश्वर के संरक्षण में हर विपत्ति से सुरक्षित रहता है। जन्माष्टमी पर बच्चों को यह लीलाएँ सुनाना उनके जीवन में भक्ति, साहस और सत्य की नींव डाल सकता है।

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