अयोध्या में राम का आगमन और गणेश-लक्ष्मी पूजन का रहस्य

दिवाली, भारत का सबसे प्रिय और भव्य त्योहार, हर वर्ष दीपों की माला से जगमगाता है। वर्ष 2025 में दिवाली 20 अक्टूबर को मनाई जाएगी, जो कार्तिक मास की अमावस्या को पड़ती है। लेकिन एक सवाल हमेशा मन में कौंधता है, दिवाली तो भगवान राम के 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटने का उत्सव है, फिर इस दिन गणेश-लक्ष्मी की पूजा क्यों की जाती है? राम के आगमन का जश्न मनाते हुए गणेश (विघ्नहर्ता) और लक्ष्मी (धनदायिनी) का क्या संबंध है? इस लेख में हम गणेश-लक्ष्मी पूजन के पीछे के गहन धार्मिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक कारणों को समझेंगे।
राम का अयोध्या आगमन : पौराणिक कथा और दिवाली का मूल –
रामायण महाकाव्य, वाल्मीकि द्वारा रचित, भारतीय संस्कृति का अमूल्य रत्न है। इसमें भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम की कथा वर्णित है, जो मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूजे जाते हैं। राम का जन्म अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के पुत्र के रूप में हुआ। लेकिन उनकी चतुरंगिणी बहन कैकेयी के वरदान मांगने पर राम को 14 वर्ष का वनवास झेलना पड़ा। उनके साथ पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण भी वन चले गए। वनवास के दौरान रावण ने सीता का हरण कर लिया, जिसके प्रतिशोध में राम ने वानर सेना की सहायता से लंका पर विजय प्राप्त की। रावण का वध कर सीता को मुक्त करने के बाद अयोध्या लौटे।
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यह लौटना कोई साधारण घटना नहीं थी। राम के वनवास समाप्त होने पर अयोध्या के निवासियों ने अपार उत्साह से उनका स्वागत किया। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में वर्णित है कि पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की तरह चमकते दीपों से अयोध्या जगमगा उठी। राजा राम को सिंहासन पर विराजमान कर पूरे नगर में दीप प्रज्वलन किया गया। यह दीपावली का प्रारंभ था – दीपों का त्योहार। दीपों का प्रतीक अंधकार पर प्रकाश की विजय है, जो राम के अधर्म (रावण) पर धर्म की विजय का प्रतीक है। हर वर्ष कार्तिक अमावस्या को हम इस विजय का उत्सव मनाते हैं।
गणेश-लक्ष्मी पूजन : दिवाली की व्यापक परंपरा –
दिवाली केवल राम के आगमन तक सीमित नहीं है। हिंदू पंचांग के अनुसार, यह पांच दिवसीय उत्सव है : धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दीपावली (अमावस्या), अन्नकूट और भाई दूज। मुख्य दिवस अमावस्या को लक्ष्मी पूजन होता है, जिसमें गणेश जी को भी साथ पूजा जाता है। लेकिन रामायण में गणेश या लक्ष्मी का सीधा उल्लेख क्यों नहीं? इसका उत्तर हिंदू धर्म की बहुआयामी प्रकृति में छिपा है। रामायण त्रेतायुग की कथा है, जबकि गणेश-लक्ष्मी पूजन की परंपरा पुराणों और लोक परंपराओं से विकसित हुई।
सबसे पहले, गणेश पूजन का कारण समझें। भगवान गणेश, शिव-पार्वती के पुत्र, विघ्नहर्ता कहलाते हैं। स्कंद पुराण और गणेश पुराण में वर्णित है कि कोई भी कार्य सिद्ध करने से पहले गणेश की पूजा अनिवार्य है। दिवाली पर नया व्यापारिक वर्ष शुरू होता है। कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को विक्रम संवत का नया साल। व्यापारी वर्ग के लिए यह वर्ष की शुरुआत है, जहां बही-खाते नए किए जाते हैं। किसी भी नए उद्यम में बाधाओं से बचने के लिए गणेश जी की आराधना की जाती है। राम के आगमन का जश्न तो आध्यात्मिक विजय का है, लेकिन दिवाली आर्थिक समृद्धि का भी प्रतीक है। इसलिए, गणेश पूजन राम की कथा के साथ जुड़ गया, क्योंकि बिना बाधा-निवारण के विजय अधूरी है।
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माता लक्ष्मी विष्णु की अर्धांगिनी हैं, और राम विष्णु के अवतार हैं। विष्णु लक्ष्मी के साथ ही पूर्ण होते हैं। लक्ष्मी चंचला हैं – धन की देवी जो सत्कर्म करने वालों के पास ठहरती हैं। पद्म पुराण में कहा गया है कि अमावस्या की रात्रि में लक्ष्मी जी भ्रमण करती हैं, और दीप प्रज्वलित घरों में प्रवेश करती हैं। इसलिए, घर साफ-सुथरा कर दीप जलाकर लक्ष्मी को आमंत्रित किया जाता है। राम के अयोध्या लौटने पर भी समृद्धि आई। नगर फूल-फल से सजा, धन-धान्य से भरपूर। लक्ष्मी पूजन इसी समृद्धि का प्रतीक है।
सांस्कृतिक एकीकरण और आधुनिक संदर्भ :
हिंदू धर्म की खूबसूरती यही है कि विविध परंपराएं एक सूत्र में बंधी हैं। राम का आगमन आध्यात्मिक प्रकाश देता है, जबकि गणेश-लक्ष्मी पूजन भौतिक समृद्धि। दोनों मिलकर पूर्ण जीवन का संदेश देते हैं। दक्षिण भारत में यह पूजन थोड़ा अलग है। वहां कृष्ण की कथा या नरकासुर वध से जुड़ा है, लेकिन उत्तर भारत में राम प्रधान है। फिर भी, गणेश-लक्ष्मी सर्वत्र हैं। दिवाली हमें सिखाती है कि जीवन में विजय (राम) और समृद्धि (लक्ष्मी) दोनों आवश्यक हैं। गणेश बाधाओं को दूर कर इस यात्रा को सुगम बनाते हैं। अयोध्या राम के आगमन से प्रेरित होकर हम पूजन करें, तो त्योहार सार्थक होगा। यह परंपरा सदियों पुरानी है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पुरुषार्थों को जोड़ती है।