रामायण कथा: हनुमान जी ने कैसे बचाए भरत के प्राण और अयोध्या का सुख

रामायण के पावन पन्नों में प्रभु श्रीराम की मर्यादा और भाई भरत की भक्ति का एक अनुपम संगम है। जब लंका विजय के बाद श्रीराम चौदह वर्षों का वनवास पूर्ण कर अयोध्या लौट रहे थे, तब उनके प्रिय भाई भरत का हृदय प्रेम और वचनबद्धता की अग्नि में तप रहा था।
वाल्मीकि रामायण (उत्तरकांड 126.90) में उल्लेख है कि भरत ने श्रीराम से कहा था —
“यदि आप नियत समय पर न लौटे, तो मैं अपने प्राण अग्नि में अर्पित कर दूँगा।”
उनकी यह प्रतिज्ञा केवल वचन नहीं थी, बल्कि श्रीराम के प्रति भक्ति की चरम सीमा थी।
कैकेयी का वरदान और वनवास का प्रारंभ
कथा उस समय से शुरू होती है, जब मंथरा के कुटिल विचारों से प्रभावित होकर माता कैकेयी ने महाराज दशरथ से दो वर मांगे। पहला, भरत को अयोध्या का राजसिंहासन और दूसरा, श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास।
यह सुनकर दशरथ का हृदय विदीर्ण हो उठा, किंतु राजधर्म और वचन की मर्यादा ने उन्हें विवश कर दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने पिता के वचन को सिरोधार्य कर वनवास स्वीकार किया।
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माता सीता और भाई लक्ष्मण ने भी उनके साथ वनगमन का संकल्प लिया। अयोध्या नगरी शोक के सागर में डूब गई। महाराज दशरथ अपने प्राणप्रिय पुत्र के वियोग को न सह सके और अंततः राम-राम का नाम लेते हुए देह त्याग दी।
शिव पुराण (रुद्रसंहिता) में भी वर्णन मिलता है कि जो व्यक्ति धर्म के लिए वचन देता है, वह स्वयं शिवतुल्य हो जाता है — यही भाव दशरथ और श्रीराम दोनों ने जीवित किया।
भरत का वचन और नंदीग्राम का तप
भरत, जो इस निर्णय से अनभिज्ञ थे, जब चित्रकूट में श्रीराम से मिले, तो उनके हृदय में पीड़ा की लहरें उठीं। उन्होंने श्रीराम से अयोध्या लौटने की हृदयस्पर्शी प्रार्थना की, किंतु श्रीराम ने पिता के वचन की पवित्रता को सर्वोपरि रखा।
तब भरत ने दृढ़ संकल्प लिया —
“हे प्रभु, यदि आप चौदह वर्ष पूर्ण होने पर एक क्षण भी विलंब करेंगे, तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा।”
इस वचन के साथ, उन्होंने नंदीग्राम में तपस्वी जीवन अपनाया और श्रीराम की खड़ाऊं को सिंहासन पर रखकर अयोध्या का राजकाज संभाला।
यह प्रसंग रामचरितमानस (अयोध्याकांड, दोहा 108) में आता है —
“सिंहासन पर राखी खड़ाऊं, भये भरत तजि सुख सब भाऊं।”
भरत ने नंदीग्राम में कुशासन बिछाकर, वृक्षों के नीचे निवास किया, नंगे पांव रहे, और राज्य के वैभव से दूर केवल प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा करते रहे।
हनुमान की तत्परता और बुद्धिमत्ता
समय बीता, और जब वनवास की अवधि समाप्त हुई, भरत का विश्वास अटल था कि श्रीराम समय पर लौटेंगे। किंतु श्रीराम, केवट को दिए वचन को निभाने में विलंबित हो रहे थे।
(पद्म पुराण के अनुसार, केवट ने श्रीराम से वचन लिया था कि जब लौटें तो मेरे घाट से ही अयोध्या जाएं, इसी कारण वे विलंबित हुए।)
भरत, अपने वचन के प्रति अडिग, अग्निकुंड के समक्ष खड़े होकर आत्मदाह की तैयारी करने लगे। उनका हृदय श्रीराम के प्रति अटूट प्रेम और वचन की पवित्रता से भरा था।
इसी बीच, श्रीराम ने अपने प्रिय भक्त हनुमान को अयोध्या भेजा।
वाल्मीकि रामायण (उत्तरकांड 126.104) में उल्लेख है कि श्रीराम ने कहा —
“हे हनुमान, शीघ्र अयोध्या जाओ, भरत को हमारा संदेश दो कि हम आ रहे हैं।”
हनुमान ने तीव्र गति से उड़ान भरी और अयोध्या पहुंचे। वहां का दृश्य देख उनका हृदय कांप उठा — भरत अग्नि के समक्ष प्राण त्यागने को तत्पर थे।
हनुमान ने तुरंत श्रीराम का संदेश सुनाया —
“हे भरत, प्रभु श्रीराम शीघ्र ही अयोध्या पधार रहे हैं!”
यह सुनते ही भरत की आंखों से अश्रुधारा बह निकली। उनके हृदय का बोझ हल्का हुआ, और उन्होंने प्राण त्यागने का विचार त्याग दिया।
अयोध्या का आनंदोत्सव और भरत-मिलाप
कुछ ही क्षणों में अयोध्या नगरी उत्सवमय हो उठी। श्रीराम, सीता और लक्ष्मण का भव्य स्वागत हुआ।
अयोध्यावासियों ने घर-घर दीप जलाए, मार्गों पर फूल बिछाए, और पूरी नगरी को दीपों से सजाया।
यह वही समय था जब दीपावली का आरंभ हुआ — जब अयोध्या ने दीपों से अपने आराध्य श्रीराम का स्वागत किया।
पद्म पुराण (उत्तरखंड) में कहा गया है कि —
“रामोऽभिषिक्तोऽयोध्यायाम् दीपमालाभिरालिकृतः।”
अर्थात् — अयोध्या में जब राम का अभिषेक हुआ, तब पूरी नगरी दीपमालाओं से सजाई गई।
पद्म पुराण (उत्तरखंड, अध्याय 112) में कहा गया है —
“दीपदानं तदा लोके रामराज्याभिषेचनात्।”
अर्थात् — जब श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ, तब से ही लोक में दीपदान का यह उत्सव चला।
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जब श्रीराम और भरत का मिलन हुआ, तो वह क्षण प्रेम, भक्ति और त्याग का अनुपम संगम था।
रामचरितमानस (उत्तरकांड, दोहा 1) में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं —
“मिलेउ भरत लघु राम सनेहू, प्रीति परस्पर पावक केहू।”
दोनों भाइयों के गले मिलते ही अयोध्या की प्रजा की आंखें सजल हो उठीं। देवगणों ने पुष्पवर्षा की, और सम्पूर्ण अयोध्या में सत्य, धर्म और प्रेम की पुनर्स्थापना हुई।
यदि हनुमान एक पल भी विलंब करते, तो भरत अपने प्राण त्याग देते, और उनके वियोग में श्रीराम भी जीवन का त्याग कर देते। इसीलिए दशहरे के अगले दिन भरत मिलाप का उत्सव मनाया जाता है, जो अयोध्या, काशी और उत्तर भारत में आज भी हर्षोल्लास के साथ जीवित है।
यह कथा भाईचारे, भक्ति और वचन की पवित्रता का अमर संदेश देती है —
“जहाँ प्रेम और वचन एक साथ होते हैं, वहाँ भगवान स्वयं प्रकट होते हैं।”