नरकासुर वध कथा, अधर्म पर धर्म की विजय की कहानी

हिंदू पौराणिक कथाओं में नरकासुर वध की कथा एक ऐसी रोचक और प्रेरणादायक घटना है, जो अधर्म के अत्याचारों पर धर्म की विजय का प्रतीक है। यह कथा विशेष रूप से नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली से जुड़ी हुई है, जो दीपावली के ठीक एक दिन पहले मनाई जाती है। नरकासुर, जिसे भौमासुर भी कहा जाता है, भगवान विष्णु के वराह अवतार और भूमि देवी (भूदेवी) का पुत्र था। वराह अवतार में भगवान विष्णु ने हिरण्याक्ष राक्षस के हाथों अपहरण की गई पृथ्वी को अपने दांतों पर उठाकर उद्धार किया था। उसी समय भूमि देवी के गर्भ से नरकासुर का जन्म हुआ। जन्म के समय वह एक पराक्रमी और धर्मनिष्ठ योद्धा था, लेकिन धीरे-धीरे वह दुष्टता की राह पर चल पड़ा।

नरकासुर का अहंकार और वरदान

नरकासुर के दुष्ट बनने का मुख्य कारण उसके अहंकार और प्राप्त वरदानों की अधिकता थी। बचपन में ही उसकी माता भूमि देवी ने उसे वरदान दिया कि वह अजेय रहेगा और केवल एक स्त्री ही उसके वध का कारण बन सकती है। इसके अलावा, उसने कठोर तपस्या से ब्रह्मा जी से वर प्राप्त किया कि उसे कोई देवता या मनुष्य न मार सके। ये वरदानों ने उसे अभिमानी बना दिया। प्राग्ज्योतिषपुर का शासक बनने के बाद, नरकासुर ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग शुरू कर दिया। उसने त्रिलोक पर विजय प्राप्त करने का अभियान चलाया।

नरकासुर का अत्याचार और अधर्म

इंद्रलोक पर आक्रमण कर देवराज इंद्र को हराया, वरुण देव का छत्र चुराया, और देवमाता अदिति के स्वर्ण कुंडल भी छीन लिए। सबसे घृणित अपराध यह था कि उसने 16,100 निर्दोष कन्याओं का अपहरण कर लिया, जिनमें स्वर्गलोक की अप्सराएं और पृथ्वी की राजकुमारियां शामिल थीं। इन्हें अपने महल में बंदी बनाकर रखा और अत्याचार किए। ऋषि-मुनियों को तंग किया, निर्दोष प्रजा पर अत्याचार किए, और देवताओं को चुनौती दी। नरकासुर की संगति में उसके मित्र बाणासुर भी थे, जिनके प्रभाव से वह और अधिक क्रूर हो गया। देवता, ऋषि और प्रजा सब त्राहि-त्राहि करने लगे।

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श्रीकृष्ण और सत्यभामा का संकल्प

इस संकट से पीड़ित होकर देवराज इंद्र ने भगवान श्रीकृष्ण की शरण ली। श्रीकृष्ण, जो विष्णु के आठवें अवतार थे, ने अपनी पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर इस दुष्ट का संहार करने का संकल्प लिया। सत्यभामा, जो स्वयं एक कुशल धनुर्धर और योद्धा थीं, कृष्ण की सारथी बनीं। गरुड़ पर सवार होकर वे प्राग्ज्योतिषपुर पहुंचे। वहां पहुंचते ही युद्ध की शुरुआत हुई। नरकासुर के सेनापति मुर दैत्य और उसके छह पुत्रों—ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्च्वान और अरुण—ने कृष्ण पर आक्रमण किया।

नरकासुर और श्रीकृष्ण का युद्ध

श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य शक्ति से इन सबका संहार कर दिया। मुर दैत्य के रक्त से एक नया राक्षस उत्पन्न होने लगा, लेकिन कृष्ण ने उसे भी नष्ट कर दिया। अब मुख्य युद्ध नरकासुर से हुआ। नरकासुर ने शक्ति, तामस और अन्य अस्त्रों का प्रयोग किया। युद्ध इतना भयंकर था कि आकाश में काले बादल छा गए और धरती कांपने लगी। नरकासुर के एक शक्तिशाली बाण ने श्रीकृष्ण को स्पर्श किया, जिससे वे मूर्च्छित हो गए।

सत्यभामा द्वारा नरकासुर वध

वरदान के अनुसार, केवल स्त्री ही उनका वध कर सकती थी, इसलिए यह लीला रची गई। क्रोधित सत्यभामा ने तुरंत अपना धनुष उठाया और सुदर्शन चक्र की सहायता से नरकासुर पर प्रहार किया। एक ही बाण से नरकासुर का सिर कट गया और वह धरती पर गिर पड़ा। कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को यह घटना घटी, इसलिए इस दिन को नरक चतुर्दशी कहा जाता है।

नरकासुर वध के बाद की घटनाएँ

नरकासुर के वध के बाद श्रीकृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान दिया और प्राग्ज्योतिष का राजा बना दिया। अपहृत 16,100 कन्याओं को मुक्त किया गया। सामाजिक कलंक के भय से कोई उन्हें अपनाने को तैयार न था, इसलिए श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना आश्रय दिया। वे इन्हें अपनी पत्नी रूप में स्वीकार किया, लेकिन द्वारका में इन्हें स्वतंत्र रूप से रखा। ये कन्याएं कृष्ण भक्ति में लीन रहीं और कभी विवाह का दबाव न झेला।

नरकासुर का मोक्ष और वरदान

नरकासुर की मृत्यु से पहले उसने मोक्ष की प्रार्थना की और वरदान मांगा कि उसके वध के दिन लोग अभ्यंग स्नान करें और दीप जलाकर उत्सव मनाएं, ताकि उसके पापों का प्रायश्चित हो। इस कथा का संदेश स्पष्ट है। अधर्म कितना भी शक्तिशाली हो, अंततः धर्म की विजय होती है। भगवान की लीला में बुराई और अच्छाई का भेद स्पष्ट होता है, न कि रक्त संबंधों का।

नरकासुर कथा का संदेश

नरकासुर भगवान का पुत्र होने पर भी दुष्टता के कारण दंडित हुआ। यह कथा महिलाओं की शक्ति, उत्पीड़ितों की रक्षा और पाप-नाश का प्रतीक है। नरक चतुर्दशी पर उबटन लगाकर स्नान करने और 14 दीपक जलाने की परंपरा इसी कथा से जुड़ी है, जो हमें सिखाती है कि प्रकाश अंधकार को हराता है।

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