शिवलिंग और शिवमूर्ति : निराकार ब्रह्म के साकार-साक्षात्कार का दिव्य रहस्य

(शिव पुराण, लिंग पुराण एवं उपनिषदों के आधार पर)
प्राचीन काल में, हिमालय की गोद में बसे एक पवित्र आश्रम में, सभी महान ऋषि-मुनि एकत्रित हुए थे। उनके हृदय में भगवान शिव के प्रति असीम श्रद्धा और जिज्ञासा का समुद्र उफान मार रहा था। वे सभी सूत जी के समक्ष बैठे थे, जिनकी वाणी वेदों की अमृतधारा के समान शांत और ज्ञानपूर्ण थी।
एक दिन, ऋषियों ने सूत जी से प्रश्न किया —
“हे सूत जी! सभी देवताओं की पूजा मूर्तियों में होती है, परंतु भगवान शंकर की पूजा तो मूर्ति के साथ-साथ लिंग रूप में भी होती है। ऐसा क्यों? शिवलिंग की पूजा का रहस्य क्या है?”
सूत जी का उत्तर — शिवलिंग का दिव्य अर्थ
सूत जी की आँखों में दिव्य ज्योति चमकी और उन्होंने कहा —
हे मुनिवरो! आपने तो ऐसा पवित्र और हृदयस्पर्शी प्रश्न पूछा है, जो स्वयं भगवान शिव के मुख से ही सुनने योग्य है। मेरे हृदय में जो कंपन हो रहा है, वह इस प्रश्न की महिमा का प्रमाण है। मैं स्वयं तो केवल एक वाचक हूँ, लेकिन मेरे गुरुदेव के श्रीमुख से सुनी हुई भगवान शंकर की वाणी को आज आपके समक्ष प्रकट कर रहा हूँ। सुनिए, हे ऋषियो! यह कथा न केवल ज्ञान की, बल्कि भक्ति की अमर धारा है, जो सुनते ही आपके हृदय को शिवमय बना देगी।
फिर सूत जी ने गहन साँस ली और वर्णन आरंभ किया। भगवान शंकर तो स्वयं ब्रह्म के निराकार स्वरूप हैं, जो अनादि, अनंत और सर्वव्यापी हैं। वे आकाश की तरह विस्तृत हैं, बिना किसी रूप के, बिना किसी सीमा के। लेकिन यही शंकर रूपवान भी हैं। वे साकार होकर जगत के दुखों को हर लेते हैं, जैसे माता अपने पुत्र को आलिंगन में भर लेती है। इसलिए भगवान शिव ‘सकल’ (साकार) और ‘निष्कल’ (निराकार) — दोनों रूपों में पूजनीय हैं।
वे ब्रह्म हैं — “अनादि, अनंत, निर्विकार, सर्वव्यापक और शुद्ध चेतन स्वरूप।”
यही कारण है कि उनके दो स्वरूपों की उपासना होती है —
- शिवलिंग, जो उनके निष्कल, निराकार, ब्रह्मस्वरूप का प्रतीक है।
- शिवमूर्ति, जो उनके सगुण, साकार, करुणामय रूप का प्रतीक है।
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शिव पुराण (विद्येश्वर संहिता) में वर्णन आता है कि —
“शिवः साकारो भवति भक्तानुग्रह हेतवे।”
अर्थात् — शिव भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए साकार रूप धारण करते हैं।
हे मुनिवरो! कल्पना कीजिए उस परमात्मा को, जो बिना रूप के सब कुछ हैं, और रूप धारण कर सबका उद्धार करते हैं। इसी कारण उनकी पूजा का मूल आधार शिवलिंग निराकार ही प्राप्त हुआ है। शिवलिंग तो भगवान शिव के उस अनंत, असीम स्वरूप का प्रतीक है, जहाँ कोई सीमा नहीं, कोई आकार नहीं, केवल शुद्ध चेतना का ज्योति-स्वरूप।
जब हम शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं, तो वह जल हमारी भक्ति का अंश बन जाता है, और हमारा हृदय उस निराकार ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। क्या कहूँ उस आनंद का, जो निराकार पूजा में लीन होकर मिलता है। जैसे नदी समुद्र में विलीन हो जाती है।”
सूत जी की वाणी में भावुकता का स्वर और गहरा हो गया। वे बोले, “लेकिन यही शंकर साकार भी हैं। उनकी शक्ति, उनकी लीला, उनका रूप इतना मनोहर है कि जगत उन्हें ‘सगुण’ कहकर पुकारता है। इसलिए उनकी पूजा का दूसरा आधार विग्रह या मूर्ति भी उतनी ही पवित्र है। वह शिवमूर्ति उनके साकार स्वरूप का जीवंत प्रतीक है जहाँ नटराज का नृत्य, दक्षिणामूर्ति का ज्ञान, या अर्धनारीश्वर का संतुलन सब कुछ जीवंत हो उठता है।
शिवलिंग — ब्रह्म का प्रतीक
सूत जी बोले हे ऋषियो! जब हम मूर्ति के चरणों में फूल चढ़ाते हैं, तो वह फूल हमारी प्रेममयी भक्ति का प्रतीक बन जाता है। सकल और निष्कल दोनों होने से वे ही ब्रह्म कहलाते हैं। वह परमात्मा जो वेदों में ‘ॐकार’ के रूप में प्रतिध्वनित होता है। यही कारण है कि सारा जगत लिंग और मूर्ति , निराकार और साकार दोनों में ही भगवान शंकर की पूजा करता है। यह पूजा न केवल रीति है, बल्कि हृदय की पुकार है, जो शिव को हर साँस में बुलाती है।”
अब सूत जी ने अपनी वाणी को और अधिक भावपूर्ण बनाते हुए कहा, “लेकिन हे मुनिवरो! भगवान शिव से भिन्न अन्य देवता चाहे वे इंद्र हों या ब्रह्मा वे साक्षात ब्रह्म नहीं हैं। वे तो सगुण सृष्टि के अंश हैं, जीवों के समान। उनके स्वरूप सीमित हैं, इसलिए उनके लिए निराकार लिंग का उद्भव ही नहीं होता। वे लिंग रूप में पूजित नहीं होते, क्योंकि वे उस अनंत ब्रह्म के पूर्ण प्रतिबिंब नहीं। सभी देवता ब्रह्म के अंश हैं, लेकिन ब्रह्म स्वरूप नहीं। उनका जिवत्व—उनकी सीमितता—वेदों के सारभूत उपनिषदों से सिद्ध होता है।
जो ‘ॐकार’ है, जो प्रणव है, वह तत्व रूप से भगवान शिव द्वारा ही प्रतिपादित है। वह बोले, “इस रहस्य को और गहराई से समझने के लिए एक प्राचीन कथा याद आती है। मंदराचल पर्वत पर, सनत कुमार मुनि ने भगवान शिव के परम भक्त नंदी महाराज से यही प्रश्न किया था।
सनत कुमार का हृदय जिज्ञासा से भरा था, आँखें श्रद्धा से नम। उन्होंने नंदी जी से वही पूछा जो आपने मुझसे पूछा—शिव पूजा का यह अनोखा रहस्य क्या है? नंदी जी, जो स्वयं शिव के वाहन हैं और उनके हृदय के द्वारपाल, ने गहन साँस ली और बोले, ‘हे सनत कुमार! यह तो अत्यंत गोपनीय और पवित्र विषय है, जो सुनने वाले के हृदय को हमेशा के लिए शिवमय बना देता है।
“शिवलिङ्गं महेशस्य रूपं ब्रह्म स्वरूपकम्। तस्मात् पूज्यं हि सर्वत्र भक्त्या लिङ्गं विशेषतः॥”
(शिव पुराण, कोटि रुद्र संहिता, अध्याय 12)
शिवलिंग साक्षात ब्रह्म का प्रतीक है। वह अनंत ऊर्जा का केंद्र, जहाँ सारा ब्रह्मांड समाहित है। भगवान शिव ब्रह्म स्वरूप और निराकार हैं, इसलिए उनकी पूजा में निष्कल लिंग का प्रयोग होता है। संपूर्ण वेदों का यही मत है। वे ही सकला हैं, और इस प्रकार निराकार तथा साकार दोनों।’
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नंदी जी की वाणी में भक्ति का ऐसा भाव था कि सनत कुमार के नेत्रों से आँसू बहने लगे। नंदी जी ने आगे कहा, “भगवान शंकर निष्कल और निराकार होते हुए भी कलाओं से युक्त हैं—वे लीला करते हैं, रूप धारण करते हैं, ताकि भक्तों का हृदय आनंद से भर जाए। इसलिए उनकी साकार रूप में प्रतिमा पूजा भी प्रचलित है। हे मुनि ! जब हम शिवमूर्ति के समक्ष खड़े होते हैं, तो वह रूप हमें पुकारता है—’आओ, मेरे पास आओ, मैं तुम्हारा हूँ।’ यह पूजा हृदय की धड़कन है, जो शिव को हर पल याद दिलाती है। वेदों की यह शिक्षा है कि शिव ही सब कुछ हैं—निराकार ब्रह्म और साकार सृष्टिकर्ता।”
सूत जी ने अपनी कथा समाप्त करते हुए कहा, “हे ऋषियो! इस कथा को सुनकर आपका हृदय भी शिव के प्रति और अधिक प्रेम से भर गया होगा। शिव पूजा का यह रहस्य हमें सिखाता है कि भक्ति रूप और निरूप दोनों में होनी चाहिए। जैसे नदी बहती है तो रूप धारण करती है, लेकिन समुद्र में पहुँचकर निराकार हो जाती है। “
लिंग पुराण में कहा गया है —
“लिङ्गं एव परमं ब्रह्म, नान्यत् तत्त्वं सनातनम्।”
(लिंग पुराण, 1.6.35)
अर्थात् — शिवलिंग ही परम ब्रह्म है; इसके अतिरिक्त कोई सनातन तत्त्व नहीं।
यजुर्वेद (40.17) में कहा गया है —
“शिवोऽहम्, शिवोऽहम्।”
यह मंत्र बताता है कि आत्मा स्वयं शिवतत्त्व से भिन्न नहीं। शिवलिंग की उपासना से भक्त अपने भीतर के शिवस्वरूप का अनुभव करता है।
शिवलिंग की उत्पत्ति कथा — शिव पुराण संदर्भ
शिव पुराण (विद्येश्वर संहिता, अध्याय 9) के अनुसार —
ब्रह्मा और विष्णु के बीच यह विवाद हुआ कि कौन श्रेष्ठ है।
तभी एक अनंत ज्योति स्तंभ प्रकट हुआ, जिसका कोई आदि और अंत नहीं था।
ब्रह्मा ऊपर की ओर, और विष्णु नीचे की ओर गए, लेकिन वे उस ज्योति के छोर तक नहीं पहुँच सके।
अंत में भगवान शिव उस ज्योति से प्रकट हुए और बोले —
“अहमेव लिङ्गस्वरूपोऽस्मि, अहमेव ब्रह्म तत्त्वम्।”
अर्थात् — “मैं ही वह अनंत लिंग हूँ, मैं ही परम ब्रह्म हूँ।”
उस दिन से शिवलिंग पूजा प्रारंभ हुई, जो अनादि ब्रह्म का प्रतीक है — न आरंभ, न अंत।
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शिव — सकल और निष्कल दोनों रूपों में ब्रह्म
वेदांत कहता है कि शिव वही हैं जो “रूप” में भी हैं और “अरूप” में भी।
उपनिषदों में भी शिव के निराकार स्वरूप का वर्णन है —
“एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुः।” (श्वेताश्वतर उपनिषद् 3.2)
अर्थात् — केवल एक ही रुद्र है, जिसका कोई दूसरा नहीं।
फिर भी वही रुद्र जब भक्तों की भक्ति से आकर्षित होते हैं, तो नटराज, शंभु, महादेव, और अर्धनारीश्वर बनकर साकार हो जाते हैं।
शिवलिंग और शिवमूर्ति : भक्ति और ज्ञान का संगम
शिव पुराण में कहा गया है —
“लिङ्गं ध्यानं परं तत्त्वं, मूर्तिः भक्तेः परं फलम्।”
अर्थात् — “लिंग ध्यान का विषय है, और मूर्ति भक्ति का मार्ग।”
इस प्रकार, भगवान शंकर ही वेदांत के परब्रह्म हैं —
जो निराकार भी हैं और साकार भी,
जो ध्यान का विषय भी हैं और प्रेम का अनुभव भी।
निष्कर्ष : शिव पूजा का दार्शनिक अर्थ
इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि —
शिवलिंग, निराकार ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, और शिवमूर्ति, उस ब्रह्म के साकार दर्शन का माध्यम।
इन दोनों की उपासना से भक्त अपने भीतर के शिवत्व को जागृत करता है।
यही कारण है कि आज भी जब कोई भक्त शिवलिंग पर जल चढ़ाता है, तो वह केवल एक कर्म नहीं करता,
वह अपने भीतर की चेतना को ब्रह्म में विलीन करता है।
वह अपने अस्तित्व को उस अनंत ओंकार में समर्पित कर देता है —
“ओं नमः शिवाय।”