कृष्ण-द्रौपदी रक्षा बंधन कथा: महाभारत से जुड़ी विश्वास और सुरक्षा की अमर गाथा

रक्षा बंधन केवल भाई-बहन के रिश्ते का पर्व नहीं है, बल्कि यह भावनात्मक समर्पण, विश्वास और सुरक्षा के वचन का प्रतीक है। यह पर्व पौराणिक काल से ही मनाया जा रहा है। महाभारत, हरिवंश पुराण और भागवत महापुराण में उल्लेखित कथाओं में से एक अत्यंत प्रसिद्ध प्रसंग है – भगवान श्रीकृष्ण और द्रौपदी का। यह कथा दर्शाती है कि रक्षा सूत्र का बंधन रक्त-संबंधों से परे जाकर भावनात्मक संबंधों को भी दिव्यता प्रदान कर सकता है।
कृष्ण-द्रौपदी की रक्षा बंधन कथा
सभापर्व में शिशुपाल का वध और कृष्ण की उंगली कटना
राजसूय यज्ञ का भव्य सभागार। चारों ओर राजाओं का जमावड़ा और युधिष्ठिर द्वारा अग्रपूजा के लिए श्रीकृष्ण का चयन।
शिशुपाल (क्रोध में):
“यह ग्वाला, यह चरवाहा, यह तुम्हारे अग्रपूजा के योग्य है? यह तो गोपियों संग नाचने वाला नीच है!”
सभा स्तब्ध हो गई। श्रीकृष्ण शांत मुद्रा में सब सुन रहे थे। सौ अपराध क्षमा करने का वचन याद था। जब शिशुपाल का अपराध सीमा पार कर गया, श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र उठाया।
कृष्ण (गंभीर स्वर में):
“शिशुपाल! मैंने तुम्हारे सौ अपराध क्षमा किए, पर अब धर्म की रक्षा के लिए तुम्हारा अंत आवश्यक है।”
सुदर्शन चक्र चल पड़ा। शिशुपाल का वध हुआ, लेकिन चक्र के तेज़ आघात से श्रीकृष्ण की अंगुली कट गई। रक्त टपकने लगा।
संदर्भ: महाभारत, सभापर्व, अध्याय 44-45
द्रौपदी का भावनात्मक समर्पण
सभा में द्रौपदी उपस्थित थीं। उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण की अंगुली से रक्त बह रहा है।
द्रौपदी (विवश भाव से):
“स्वामी! आपकी अंगुली से रक्त बह रहा है। प्रतीक्षा मत कीजिए।”
द्रौपदी ने बिना सोचे-समझे अपनी साड़ी का किनारा फाड़कर कृष्ण की उंगली पर बांध दिया।
कृष्ण (भावुक होकर):
“द्रौपदी! तुम्हारा यह निःस्वार्थ भाव मुझे जीवनभर ऋणी कर देगा। मैं वचन देता हूँ, जब भी तुम संकट में होगी, मैं स्वयं तुम्हारी रक्षा करूँगा।”
द्रौपदी ने श्रद्धा से सिर झुका दिया। सभा में यह दृश्य सभी के हृदय को छू गया।
संदर्भ: हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व
द्रौपदी चीरहरण और कृष्ण का वचन निभाना
हस्तिनापुर का सभागार। दुःशासन द्रौपदी को घसीटते हुए सभा में लाता है।
द्रौपदी (आर्तनाद करती हुई):
“हे सभासदों! क्या इस सभा में कोई मेरी रक्षा नहीं करेगा?”
सभा मौन रही। दुःशासन ने उनकी साड़ी खींचनी शुरू कर दी। द्रौपदी ने विवश होकर श्रीकृष्ण को पुकारा।
द्रौपदी (विलाप करती हुई):
“हे माधव! आज यदि आपने मेरा साथ न दिया, तो यह जीवन व्यर्थ हो जाएगा। मेरी लाज बचाइए।”
तभी श्रीकृष्ण ने अपना दिव्य स्वरूप प्रकट किया। उनकी कृपा से द्रौपदी की साड़ी अनंत हो गई। दुःशासन थककर बैठ गया, परंतु चीर समाप्त नहीं हुआ।
कृष्ण (अंतरात्मा से):
“द्रौपदी! यह वही रक्षा वचन है जो मैंने उस दिन दिया था जब तुमने मेरी उंगली पर वस्त्र बांधा था।”
संदर्भ: महाभारत, सभापर्व, अध्याय 68
कृष्ण का आशीर्वाद और द्रौपदी का विश्वास
द्रौपदी का श्रीकृष्ण के प्रति विश्वास केवल संकट की घड़ी तक सीमित नहीं था। महाभारत के विभिन्न प्रसंगों में यह स्पष्ट होता है कि द्रौपदी हर निर्णय में कृष्ण की सलाह और आशीर्वाद को सर्वोपरि मानती थीं। वनवास के दौरान जब पांडव कठिन परिस्थितियों में थे, द्रौपदी ने मन ही मन श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि वे सदैव उनका मार्गदर्शन करें।
कृष्ण ने भी द्रौपदी को यह आश्वासन दिया था कि वे उनके जीवन के हर मोड़ पर उनके साथ रहेंगे। युद्ध से पहले जब द्रौपदी को अपने बच्चों और पांडवों की सुरक्षा की चिंता थी, तब कृष्ण ने उन्हें समझाया:
“द्रौपदी! विश्वास रखो। जब तक तुम्हारे हृदय में धर्म और सत्य की शक्ति है, कोई भी तुम्हें और तुम्हारे प्रियजनों को क्षति नहीं पहुँचा सकता।”
यह विश्वास ही द्रौपदी की सबसे बड़ी शक्ति बन गया। इस आध्यात्मिक बंधन ने द्रौपदी को न केवल कुरु सभा जैसे अपमानजनक प्रसंग में सहारा दिया, बल्कि पूरे महाभारत युद्ध के दौरान उनके मनोबल को भी बनाए रखा।
संदर्भ: महाभारत, वनपर्व, उद्योगपर्व
रक्षा बंधन का आध्यात्मिक संदेश
कृष्ण और द्रौपदी के बीच कोई रक्त-संबंध नहीं था, फिर भी उनके बीच अटूट आत्मीयता और परस्पर सम्मान का बंधन था। यह कथा हमें यह सिखाती है कि रक्षा बंधन केवल भाई-बहन के रक्त संबंध तक सीमित नहीं है, बल्कि जहाँ निःस्वार्थ स्नेह, श्रद्धा और विश्वास हो, वहाँ यह बंधन प्रकट हो सकता है।
रक्षा बंधन का सूत्र हमें यह संदेश देता है कि संकट के समय रक्षा का वचन केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि एक गहन दायित्व है। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की रक्षा कर यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि सच्चे संबंध परिस्थितियों से परे होते हैं।
आधुनिक समय में प्रासंगिकता
आज जब रिश्तों में औपचारिकता और स्वार्थ का प्रभाव बढ़ रहा है, यह कथा हमें सिखाती है कि सच्चे संबंध प्रेम और त्याग पर आधारित होते हैं। रक्षा बंधन का धागा केवल एक अनुष्ठान नहीं है, यह हमें अपने प्रियजनों की रक्षा के लिए हर परिस्थिति में तत्पर रहने का संकल्प कराता है।
निष्कर्ष
कृष्ण-द्रौपदी की यह कथा इस पर्व को दिव्यता प्रदान करती है। यह हमें बताती है कि रक्षा बंधन न केवल भाई-बहन का त्योहार है, बल्कि यह भावनात्मक और आत्मिक संबंधों की पवित्रता का उत्सव है। जब संबंध प्रेम और निष्ठा से बंधे हों, तब स्वयं भगवान भी रक्षक बन जाते हैं।