कब है बलराम जयंती 2025? क्यों मनाई जाती है और कैसे करें पूजन?

हर वर्ष भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को श्रद्धा एवं भक्ति के साथ बलराम जयंती मनाई जाती है। यह दिन भगवान श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता एवं आदिशेष के अवतार बलराम जी के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। ब्रजभूमि में इन्हें ‘बलदाऊ जी’ या ‘दाऊ जी महाराज’ के नाम से अत्यंत श्रद्धा के साथ पुकारा जाता है। ब्रजवासीगण इस दिन उल्लासपूर्वक जयकार लगाते हैं – “दाऊ दयाल ब्रज के राजा, भाँग पिये तो इतकु आजा!” इस भाव में भक्ति, प्रेम, और लोक आस्था की छवि स्पष्ट झलकती है।
भगवान बलराम को शेषनाग का अवतार माना जाता है, वही शेषनाग जिन पर भगवान विष्णु क्षीर सागर में योगनिद्रा में विश्राम करते हैं। बलराम जी को विभिन्न नामों से जाना जाता है – बलदेव, बलभद्र, दाऊ जी और हलायुध, जो उनके दिव्य गुणों को प्रकट करते हैं। वे केवल एक महाबली योद्धा ही नहीं, बल्कि गदा युद्ध और मल्लयुद्ध में निष्णात, धर्मपरायण, मर्यादा का पालन करने वाले आदर्श पुरुष भी हैं।
बलराम जयंती 2025 में कब है?
वर्ष 2025 में यह शुभ पर्व 14 अगस्त, गुरुवार को मनाया जाएगा, जब भाद्रपद कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि होगी। यह दिन विशेष नियमों और संयम के साथ मनाया जाता है। इस दिन हल से जुते हुए अन्न, जैसे गेहूं, धान, मूँग आदि का सेवन वर्जित होता है। व्रती केवल तालाब में उत्पन्न वस्तुएँ जैसे कमल ककड़ी, सिंघाड़ा, दूध, दही आदि का सेवन करते हैं। मान्यता है कि हलधर बलराम जी विशेष रूप से बच्चों को दीर्घायु और आरोग्य प्रदान करते हैं।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बलराम जयंती को अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे उत्तर प्रदेश व बिहार में हलछठ, राजस्थान व हरियाणा में हरछठ, ब्रज क्षेत्र में चंदन छठ, पूर्वी भारत में तिन्नी छठ, तो कहीं बलदेव छठ और ललही छठ के नाम से। इन नामों के पीछे गहरे लोक-आध्यात्मिक अर्थ छिपे हैं, जो बलराम जी के जीवन, उनके कृषि से जुड़ाव और लोक परंपराओं को दर्शाते हैं।
बलराम जी का पौराणिक स्वरूप: ग्रंथों से प्रमाणित विवरण
भगवान बलराम, श्रीकृष्ण के अग्रज और शेषनाग के अवतार माने जाते हैं। यह वर्णन हमें विशेष रूप से भागवत महापुराण (दशम स्कंध), हरिवंश पुराण, और विष्णु पुराण में प्राप्त होता है। बलराम जी का जन्म केवल एक पौराणिक चरित्र नहीं, बल्कि धर्म, शौर्य, कृषि, बल और मर्यादा का आदर्श प्रतीक है।
जन्म और अवतार की कथा
भागवत महापुराण (10.1.52-70) के अनुसार, जब कंस ने देवकी और वासुदेव की संतान को मारना आरंभ किया, तब सातवीं संतान के रूप में बलराम जी का भ्रूण देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया गया। यह कार्य स्वयं योगमाया ने किया था। इस कारण बलराम को संकर्षण भी कहा जाता है – जिसका अर्थ है “स्थानांतरित किया गया”।
उनका जन्म रोहिणी के गर्भ से हुआ, इसलिए उन्हें रोहिणीनंदन भी कहा जाता है। उनकी श्वेत वर्ण की कान्ति, विशाल काय, और हल-मूसल धारण करने वाला स्वरूप, उन्हें अन्य अवतारों से विशेष बनाता है।
शेषनाग के अवतार
विष्णु पुराण, भागवत पुराण और नारद पुराण में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि बलराम जी कोई सामान्य मानव नहीं थे। वे शेषनाग के अवतार थे – वही शेषनाग जिन पर भगवान विष्णु योगनिद्रा में स्थित होते हैं। जब-जब भगवान विष्णु ने अवतार लिया, शेषनाग ने भी उनका साथ दिया।
- त्रेता युग में शेषनाग ने लक्ष्मण रूप में भगवान राम की सेवा की।
- द्वापर युग में उन्होंने बलराम के रूप में श्रीकृष्ण के अग्रज बनकर उनका साथ दिया।
बल, कृषि और मर्यादा के प्रतीक
बलराम जी का नाम ही उनके मुख्य गुण को दर्शाता है – “बल”। वे केवल शारीरिक बल के ही नहीं, आत्मिक बल, धर्मबल, और सांस्कृतिक बल के भी प्रतीक हैं।
- गदा और मल्ल युद्ध में पारंगत – उन्होंने भीम और दुर्योधन जैसे महाबलशाली योद्धाओं को गदा युद्ध की शिक्षा दी।
- हल और मूसल – उनका शस्त्र हल और मूसल था, जो उन्हें कृषक संस्कृति और कृषि देवता के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
- अखण्ड ब्रह्मचारी और संयमित जीवन – बलराम जी का जीवन संयम, मर्यादा और कर्तव्य की मिसाल था। उन्होंने समाज को शौर्य और संयम के साथ जीवन जीने का आदर्श मार्ग दिखाया।
महाभारत में भूमिका
बलराम जी ने महाभारत युद्ध में निष्पक्ष रहने का निर्णय लिया। वे ना तो कौरवों की ओर थे, ना पांडवों की ओर। उनका तटस्थ रहना धर्म के प्रति निष्पक्षता का प्रतीक है।
- जब दुर्योधन और भीम के बीच गदा युद्ध हुआ, बलराम जी ही उनके गुरु थे।
- युद्ध के समय उन्होंने तीर्थ यात्रा पर जाना ही उचित समझा।
सुभद्रा और अर्जुन का विवाह
हरिवंश पुराण के अनुसार, जब अर्जुन ने बलराम की बहन सुभद्रा का हरण किया, बलराम पहले कुपित हुए। वे चाहते थे कि सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से हो, परंतु श्रीकृष्ण के समझाने पर उन्होंने इस विवाह को स्वीकार कर लिया। यह प्रसंग बलराम जी की व्यावहारिक बुद्धि और मर्यादा की समझ को दर्शाता है।
मूसल युद्ध और बलराम जी का महाप्रयाण
भागवत महापुराण (11.30.1-27) में वर्णन मिलता है कि द्वारका के अंत में जब यदुवंशी आपसी कलह में लिप्त होकर मूसल युद्ध में मरने लगे, तब बलराम जी ध्यानस्थ हो गए। उन्होंने समुद्र के किनारे बैठकर योगबल से अपने मूल रूप – शेषनाग को प्रकट किया और ध्यानस्थ अवस्था में नित्यधाम प्रस्थान किया। एक सफेद सर्प उनके शरीर से निकलता हुआ समुद्र की ओर गया — यही संकेत था उनके दिव्य स्वरूप का
बलराम जयंती पर पूजन-विधि
बलराम जयंती केवल भगवान बलराम की आराधना का पर्व नहीं है, बल्कि यह मातृत्व की रक्षा, कृषक जीवन के गौरव और संतान की दीर्घायु हेतु एक विशिष्ट उपासना पद्धति भी है। यह दिन विशेषकर महिलाओं, विशेषकर नवविवाहिताओं और माताओं के लिए अत्यंत पूजनीय होता है, जो अपनी संतान की रक्षा, सुख और समृद्धि के लिए व्रत और पूजन करती हैं।
पूजन सामग्री और संख्या की विशेषता
बलराम पूजन में प्रयुक्त सामग्री स्वयं में अत्यंत पवित्र और अर्थपूर्ण होती है। यह पर्व षष्ठी तिथि को होता है, इसलिए प्रत्येक पूजन वस्तु को छह की संख्या में अर्पित किया जाता है – यह संख्या संतान वर्धन और रक्षा का प्रतीक मानी जाती है।
आवश्यक पूजन सामग्री इस प्रकार है:
- भुना हुआ चना
- घी में भुना हुआ महुआ
- तिन्नी (तालाब में उगने वाला विशेष चावल)
- धान का लाजा
- लाल चंदन
- अक्षत (पूरे चावल)
- मिट्टी का दीपक
- भैंस के दूध से बना दही
- शुद्ध देसी घी
- महुआ के पत्ते
- हल्दी
- नया वस्त्र
- सात प्रकार के अन्न
- जनेऊ
- कुश (दर्भा)
ये सभी वस्तुएँ प्राकृतिक, शुद्ध और ग्राम्य जीवन की सौम्यता से जुड़ी होती हैं, जो भगवान बलराम के कृषक जीवन और स्वावलंबन के प्रतीक स्वरूप को दर्शाती हैं।
पूजन की विशेष विधि
- व्रत के दिन प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें और पूजन स्थल को शुद्ध करें।
- घर के आंगन या किसी पवित्र स्थान पर भैंस के गोबर से छठ माता का चित्र बनाया जाता है। यह चित्रण मातृत्व और संतान की रक्षा का प्रतीक है।
- साथ ही गोबर से ही प्रतीकात्मक तालाब भी बनाया जाता है, जिसमें पलाश, झरबेरी, और कांसी के छोटे प्रतीकात्मक वृक्ष लगाए जाते हैं।
- पूजन के आरंभ में गणेश जी और माता पार्वती का पूजन किया जाता है, फिर बलराम जी की आराधना की जाती है।
- पूजन के बाद व्रत कथा का श्रवण/पाठ किया जाता है।
बलराम जी का पूजन क्यों होता है विशेष?
बलराम जी का शस्त्र हल और मूसल है — जो कृषि, परिश्रम, और स्वावलंबन के द्योतक हैं। बलराम जी को संतान-रक्षा, स्वास्थ्य-वरदान, और दीर्घायु देने वाले देवता के रूप में पूजा जाता है। इस दिन किया गया व्रत माता के वात्सल्य और वंश की उन्नति के लिए अत्यंत पुण्यदायक होता है।
व्रत और आहार संबंधी नियम
इस पर्व के नियम कठोर हैं, जो इसे विशेष तप का स्वरूप प्रदान करते हैं:
- गाय के दूध, दही, या उससे बने किसी भी उत्पाद का सेवन पूर्णतः वर्जित होता है।
- केवल भैंस के दूध और उससे बने दही का उपयोग पूजन और व्रत में मान्य होता है।
- तालाब में उत्पन्न होने वाले खाद्य पदार्थ – जैसे तिन्नी चावल, सिंघाड़ा, कमल गट्टा आदि – ही ग्रहण किए जाते हैं।
यह नियम शुद्धता, संयम और तपस्या के प्रतीक हैं, जो व्रती को भीतर से भी परिशुद्ध और संकल्पशील बनाते हैं।
बलराम जयंती / हल षष्ठी व्रत कथा
यह कथा अत्यंत प्राचीन काल की है, जब भारत का जीवन कृषि, गोपालन और माटी की सुगंध से जुड़ा था। एक गाँव में एक निर्धन ग्वालिन (गाय-भैंस पालने वाली महिला) रहती थी। वह अपने परिवार का पालन-पोषण दूध-दही बेचकर करती थी। वह अत्यंत परिश्रमी थी, परंतु उसके व्यापार में ममता के स्थान पर लाभ की चिंता अधिक थी।
प्रसव वेदना और कर्म की उलझन
एक बार ऐसा संयोग आया कि हल षष्ठी (बलराम जयंती) के पावन पर्व के दिन ही उस ग्वालिन को प्रसव पीड़ा शुरू हो गई। एक ओर वह शारीरिक पीड़ा से कराह रही थी, तो दूसरी ओर उसके मन में यह चिंता थी कि अगर वह आज दूध-दही न बेच पाई तो उसका सामान खराब हो जाएगा, और उस दिन की कमाई हाथ से निकल जाएगी।
लाभ की चिंता और हृदय की ममता में द्वंद्व हुआ। लेकिन उसने माँ होने की भावना को दबाया, और सिर पर दूध-दही के घड़े उठाकर बाजार की ओर निकल पड़ी।
नवजात को झाड़ी में छोड़ने का निर्णय
जैसे ही वह झरबेरी की एक झाड़ी के पास पहुँची, प्रसव वेदना असहनीय हो उठी। वहीं उसने एक पुत्र को जन्म दिया। किंतु लालच और व्यवसाय की भूख ने उसे विवेकहीन बना दिया। उसने अपने नवजात शिशु को झाड़ियों में ही छोड़ दिया और आगे दूध बेचने चली गई।
हल और कर्म का प्रहार
उधर उसी क्षेत्र में एक किसान हल चला रहा था। हल की दिशा झरबेरी झाड़ी की ओर जैसे ही बढ़ी, बैल अचानक चौंक गए और हल का फाल झाड़ी में पड़े उस मासूम बालक के शरीर में घुस गया। बालक कराहते हुए निःप्राण हो गया। किसान स्तब्ध रह गया, किंतु उसने साहस नहीं खोया। उसने झाड़ी के कांटों से जैसे-तैसे बालक के पेट में टांके लगाए, और वहाँ से चला गया।
पश्चाताप और चेतना का जागरण
दूध बेचकर जब ग्वालिन लौटी और उसने अपने बालक की करुण अवस्था देखी, तो वह पत्थर की तरह जड़ हो गई। उसे उसी क्षण अपनी गलती का बोध हुआ। यह घटना उसके जीवन में बोध और पश्चाताप का क्षण बन गई।
उसने स्वीकार किया कि यह उसके पापों का परिणाम था—उसका झूठ बोलना, गाय-भैंस के दूध में मिलावट करना, लोगों को धोखा देना—इन्हीं कर्मों ने यह दिन दिखाया है।
गाँव में पश्चाताप और चमत्कार
उसने गाँव-गाँव जाकर अपने पापों की कथा सबको सुनाई। उसने महिलाओं को बताया कि कैसे उसके लालच, अधर्म और छल ने उसकी ममता को कलंकित कर दिया। उसकी पश्चाताप से भीगी वाणी सुनकर गाँव की स्त्रियाँ पिघल गईं। उन्होंने उसके अंतःकरण की पीड़ा को समझा और उसे क्षमा कर आशीर्वाद दिया।
ग्वालिन जब पुनः उस झाड़ी के पास पहुँची, तो उसने देखा कि उसका बालक चमत्कारी रूप से जीवित अवस्था में वहाँ लेटा हुआ है। उसकी आँखें भर आईं और उसने संकल्प लिया कि अब वह सत्य, धर्म और पवित्रता के मार्ग पर चलेगी।
कथा का संदेश
इस कथा से यह संदेश मिलता है कि:
- बलराम जी की कृपा से पश्चातापी को नया जीवन मिल सकता है।
- मातृत्व, ममता और सच्चे हृदय से किया गया व्रत, तप और उपवास कभी व्यर्थ नहीं जाते।
- हल षष्ठी या बलराम जयंती के दिन की गई सच्ची श्रद्धा, व्रत और कथा श्रवण से संतान की दीर्घायु, सुख और आरोग्य की प्राप्ति होती है।
निष्कर्ष: बलराम जयंती – शक्ति, श्रद्धा और सच्चाई का पर्व
बलराम जयंती का पर्व हमें यह सिखाता है कि जब जीवन में धर्म, श्रम, मर्यादा और प्रेम का संतुलन होता है, तभी सच्चा बल प्रकट होता है। यह पर्व न केवल संतान सुख और कृषि जीवन के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है, बल्कि यह हमें अपने कर्मों की शुद्धता, वाणी की पवित्रता और संकल्प की दृढ़ता का पाठ पढ़ाता है।इस बलराम जयंती पर आइए, बलदाऊजी से यही प्रार्थना करें कि वे हम सभी को धर्म, बल, विवेक और संतान की रक्षा का वरदान दें।