खाटू श्याम कौन हैं और वे बर्बरीक से श्याम बाबा कैसे बने?

(महाभारत, स्कंद पुराण और लोकमान्य परंपराओं पर आधारित प्रामाणिक विवरण)

भारतवर्ष की धरती पर अनेकों देव, अवतार और भक्तों की कथाएँ हैं, परंतु खाटू श्याम जी की कथा अनोखी और अत्यंत भावनात्मक है। वे महाभारत कालीन बर्बरीक के रूप में जन्मे, जो भगवान श्रीकृष्ण के आशीर्वाद से कलियुग के श्रीश्याम बाबा कहलाए। भारतवर्ष की आस्था में खाटू श्याम जी वह दिव्य नाम है, जिन्हें कलियुग के कृष्ण कहा जाता है। भक्त उन्हें “हारे के सहारे” नाम से पुकारते हैं। किंतु बहुत कम लोग जानते हैं कि खाटू श्याम जी वही महाभारत कालीन बर्बरीक हैं  उनका बलिदान इतना महान था कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें वरदान दिया —

“कलियुग में तुम मेरे नाम ‘श्याम’ से पूजे जाओगे, और जो तुम्हारा स्मरण करेगा, उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी।”

यह कथा केवल एक भक्त की नहीं, बल्कि भक्ति, त्याग और धर्म के सर्वोच्च आदर्श की कथा है।

बर्बरीक कौन थे?

महाभारत (वनपर्व) और स्कंद पुराण (अध्याय 60–66) में बर्बरीक का उल्लेख मिलता है।

महाभारत के अनुसार, बर्बरीक भीम पुत्र घटोत्कच और मोरवी (नागकन्या – उन्हें अहिलावती अथवा मोरवी और कामकटंककटा के नाम से भी जाना जाता है।) के पुत्र थे।
इस प्रकार वे पांडवों के पौत्र थे और उनमें अलौकिक शक्ति का वास था।
उनकी कथा का उल्लेख महाभारत, वनपर्व और स्कंदपुराण में प्राप्त होता है।

बर्बरीक को बचपन से ही युद्धकला में गहरी रुचि थी। उन्होंने भगवान शिव की घोर तपस्या की और उनसे तीन अमोघ बाण (तीन बाणास्त्र) प्राप्त किए।
शिव ने उन्हें वरदान देते हुए कहा —

“हे वीर! तुम्हारे इन तीन बाणों में सम्पूर्ण जगत को जीतने की शक्ति है, परंतु उनका उपयोग केवल धर्म की रक्षा में करना।”

बर्बरीक ने तब प्रतिज्ञा ली —

“मैं सदैव उस पक्ष का साथ दूँगा जो दुर्बल होगा।”
यह प्रतिज्ञा आगे चलकर महाभारत युद्ध में धर्म और नीति की परीक्षा बन गई।

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कुरुक्षेत्र युद्ध और श्रीकृष्ण से भेंट

जब कुरुक्षेत्र का युद्ध आरंभ होने वाला था, तब बर्बरीक अपनी माता से युद्ध में सम्मिलित होने की अनुमति लेने पहुँचे। माता मोरवी ने उन्हें सावधान करते हुए कहा —

“बेटा, जो पक्ष पराजित होता दिखे, उसका साथ देना।”

बर्बरीक इस वचन को अपने जीवन का धर्म मानकर युद्धभूमि की ओर चल पड़े।
उसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने, जो सब जानते थे कि यह वीर यदि युद्ध में उतरा तो तीन ही बाणों से सम्पूर्ण सेना का विनाश कर देगा, उन्हें परखने का निश्चय किया।

श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण के वेश में उनसे पूछा —

“वीर, तुम किसके पक्ष से युद्ध करने आए हो?”

बर्बरीक ने कहा —

“मैं उस पक्ष का साथ दूँगा जो दुर्बल होगा। पहले मैं कौरवों की ओर से लड़ूँगा क्योंकि उनके पक्ष में युद्धभूमि में भारी हानि होगी, फिर यदि वे बलवान हो जाएँगे तो पांडवों की ओर से।”

श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा —

“इस प्रकार तो तुम दोनों पक्षों का नाश कर दोगे।”

यह सुनकर श्रीकृष्ण ने यह समझा कि इस वीर का युद्ध में रहना विनाशकारी होगा। तब उन्होंने कहा —

“बर्बरीक, यदि तुम सच्चे दानी हो, तो मुझे अपना शीश दान में दो।”

बर्बरीक तुरंत सहमत हुए, लेकिन बोले —

“हे ब्राह्मण, बताइए कि आप कौन हैं?”

जब श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया, तब बर्बरीक ने भक्ति से अपना शीश श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित कर दिया।

श्रीकृष्ण का वरदान और बर्बरीक का दिव्य दर्शन

भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक का शीश एक पर्वत पर रखवा दिया ताकि वे सम्पूर्ण युद्ध देख सकें।
युद्ध समाप्ति के बाद जब पांडवों में यह विवाद उठा कि विजय किसके कारण हुई, तब श्रीकृष्ण ने कहा —

“उससे पूछो जिसने सम्पूर्ण युद्ध देखा है — बर्बरीक का शीश।”

जब पूछा गया, तो बर्बरीक बोले —

“मैंने देखा कि युद्ध में न अर्जुन के बाण चले, न भीम की गदा, न द्रोण की शक्ति — केवल आपके सुदर्शन चक्र और देवी दुर्गा की ऊर्जा से सब कार्य होता रहा। पांडव केवल माध्यम मात्र थे।”

श्रीकृष्ण प्रसन्न हुए और बोले —

“हे वीर, तुम्हारे इस महान बलिदान के कारण तुम कलियुग में मेरे नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारा नाम ‘श्याम’ होगा, और जो तुम्हारा सच्चे मन से स्मरण करेगा, उसे मेरा आशीर्वाद प्राप्त होगा।”

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खाटू श्याम का प्राकट्य 

लोकमान्य परंपरा के अनुसार, महाभारत युद्ध के पश्चात बर्बरीक का शीश बहते हुए राजस्थान के सीकर जिले के खाटू ग्राम में आ पहुँचा।
सदियों बाद, लगभग 1027 ईस्वी में, राजा रूपसिंह चौहान और रानी नर्मदा कंवर को स्वप्न में दिव्य आदेश मिला कि इस स्थान पर एक मंदिर का निर्माण करें।
खुदाई में जब उन्होंने एक दिव्य सिर प्राप्त किया, तो उन्होंने वहाँ मंदिर बनवाया —
यही आज का प्रसिद्ध खाटू श्याम मंदिर है।

ऐतिहासिक स्रोतों (स्थानीय अभिलेख और राजपूत कालीन परंपराओं) में यह उल्लेख है कि मुगल काल में मंदिर को नुकसान पहुँचाया गया, परंतु बाद में 1720 ईस्वी में महाराजा अभय सिंह ने इसे पुनः निर्मित कराया।
आज यह मंदिर भारत ही नहीं, बल्कि विश्वभर में बसे भक्तों के लिए श्रद्धा का केंद्र है।

शास्त्रीय दृष्टि से श्याम रूप का महत्व

श्रीमद्भागवत महापुराण (11.5.32) में कहा गया है —

“कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं संगोपांगास्त्रपार्षदम्।”
अर्थात — कलियुग में श्रीकृष्ण ‘श्यामवर्ण’ रूप में प्रकट होकर अपने भक्तों का उद्धार करेंगे।

संत परंपरा ने इसी श्लोक को आधार मानकर कहा है कि श्याम बाबा कलियुग के कृष्ण हैं — जो शीघ्र प्रसन्न होते हैं, दान के देवता हैं, और “हारे का सहारा” कहलाते हैं।

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खाटू श्याम की पूजा और मेले का आध्यात्मिक महत्व

प्रत्येक वर्ष फाल्गुन शुक्ल दशमी को श्याम जयंती या फाल्गुन मेला खाटू धाम में अत्यंत श्रद्धा और भव्यता से मनाया जाता है।
लाखों श्रद्धालु निशान यात्रा, कीर्तन और रात्रि जागरण में भाग लेते हैं।
भक्त मानते हैं कि —

“जो सच्चे मन से बाबा श्याम को पुकारता है, उसकी हर मनोकामना पूर्ण होती है।”

त्याग, भक्ति और करुणा का प्रतीक श्याम बाबा

खाटू श्याम बाबा की कथा शास्त्र और लोक दोनों का संगम है —
महाभारत और स्कंद पुराण उनकी वीरता का प्रमाण देते हैं,
जबकि राजस्थानी लोक परंपराएँ उनके अवतार और प्राकट्य की सजीव स्मृति हैं।

बर्बरीक ने अपना शीश दान कर यह सिद्ध किया कि सच्चा भक्त वह है जो धर्म के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दे
भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें श्याम नाम देकर कलियुग में दया, दान और विश्वास का प्रतीक बना दिया।

जय श्री श्याम — हारे के सहारे की जय!

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