अघासुर, बकासुर और धेनुकासुर कौन थे? श्रीकृष्ण ने कैसे किया उनका वध

श्रीकृष्ण का जीवन केवल लीलामय बाल-क्रीड़ा नहीं, बल्कि धर्म, ज्ञान और भक्ति की पुनर्स्थापना का दैवीय संदेश है।
गोकुल और वृंदावन की भूमि पर जब श्रीकृष्ण बालक रूप में अपनी गोपाल लीला कर रहे थे, तब बार-बार कंस द्वारा भेजे गए असुर वहाँ आते रहे — उनका उद्देश्य भगवान को मारना था, किंतु हर बार भगवान ने अपने दिव्य स्वरूप से उनके पापों का अंत और आत्मा को मोक्ष प्रदान किया।

इन असुरों में प्रमुख थे — अघासुर, बकासुर और धेनुकासुर। ये तीनों असुर वास्तव में अहंकार, कपट और अज्ञान के प्रतीक हैं, जिन्हें भगवान ने न केवल पराजित किया, बल्कि मानवता को उनके भीतर छिपी आसुरी प्रवृत्तियों से मुक्ति का मार्ग भी दिखाया।

अघासुर की कथा – विशाल अहंकार का अंत

अघासुर कौन था?

अघासुर राक्षस राजा कंस का अनुचर था और पूतना व बकासुर का भाई था।
जब कंस को यह ज्ञात हुआ कि उसके भाई और बहन, दोनों ही श्रीकृष्ण के हाथों मारे गए हैं, तो उसने अघासुर को भेजा। उसका उद्देश्य था – “बालकृष्ण और सभी गोपों का नाश करना।”

अघासुर ने महासर्प (अजगर) का रूप धारण किया, जो इतना विशाल था कि उसका शरीर आठ मील लंबा और मुख एक पर्वत की गुफा जितना बड़ा था। उसकी आँखें अग्नि की लपटों के समान चमक रही थीं और मुख से विष का धुआँ निकल रहा था। यह दृश्य देखकर गोप-बालकों को लगा मानो कोई भयानक गुफा उनके सामने खुली हो।

श्रीकृष्ण की लीला

बालकृष्ण के सखाओं ने उत्सुकता में उस सर्प के मुख में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण जानते थे कि यह कोई साधारण गुफा नहीं बल्कि अघासुर का मुख है।
उन्होंने अंततः स्वयं भी उसमें प्रवेश किया। तभी अघासुर ने अपना मुख बंद कर लिया।
श्रीकृष्ण ने अपनी देह को इतना विशाल कर लिया कि सर्प का शरीर फट गया।
तुरंत ही उसकी प्राणवायु नासिका मार्ग से निकलकर आकाश में कुछ देर ठहरी और फिर भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में समा गई।
इस प्रकार अघासुर को मोक्ष प्राप्त हुआ।

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बकासुर की कथा – कपट और कठोरता का अंत

बकासुर कौन था?

बकासुर भी अघासुर का भाई था और उसने एक विशाल बगुले (सारस) का रूप धारण किया।
कंस के आदेश पर वह कृष्ण और ग्वालबालों के पास पहुँचा, जब वे यमुना के किनारे भोजन कर रहे थे।

उसने भगवान श्रीकृष्ण को अपनी चोंच में दबाकर निगलने की चेष्टा की।
किंतु श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य तेज से उस असुर की चोंच को फाड़ डाला —
एक झटके में चोंच दो टुकड़ों में बँट गई और उसका जीवन समाप्त हो गया।

मोक्ष और लीला का अर्थ

मृत्यु के पश्चात बकासुर की आत्मा श्रीकृष्ण के चरणों में समा गई।
भक्ति में यह संदेश निहित है कि जो भी कपट और कठोरता को त्यागकर भगवान की शरण में आता है, उसे भी मुक्ति मिलती है।
बकासुर अपने बाहरी आवरण में बगुला था — जो ऊपर से शांत दिखाई देता है पर भीतर घात लगाए रहता है।
यह कपटी व्यक्ति के प्रतीक के समान है।
भगवान श्रीकृष्ण ने यह दिखाया कि ईश्वर सच्चाई और निर्मलता के साथ हैं, न कि छल के साथ।

धेनुकासुर की कथा – अज्ञान और हठ का अंत

धेनुकासुर कौन था?

धेनुकासुर एक शक्तिशाली गधा-रूपधारी असुर था, जो तालवन नामक वन में निवास करता था।
तालवन एक सुंदर स्थान था जहाँ ताड़ के वृक्षों पर स्वर्ग-सुगंधित फल लगते थे। किंतु धेनुकासुर ने अपने बल से पूरे वन पर अधिकार कर लिया था।
वह किसी को वहाँ जाने नहीं देता था।
उसके अनुचर भी उसी के समान गधा रूप में दुष्टता फैलाते थे।

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श्रीकृष्ण और बलराम की लीला

एक दिन बलरामजी ने अपने मित्रों के आग्रह पर तालवन जाने का निश्चय किया। जब उन्होंने पेड़ों को हिलाया, तो मीठे फलों की सुगंध पूरे वन में फैल गई।
यह देखकर धेनुकासुर क्रोधित होकर बलरामजी पर टूट पड़ा।
उसने अपने पिछले पैरों से बलरामजी को लात मारी, लेकिन बलरामजी ने क्रोध में उसके दोनों पैर पकड़कर उसे आकाश में घुमाया और पेड़ों पर पटक दिया।
धेनुकासुर वहीं मारा गया।
इसके बाद श्रीकृष्ण ने उसके अन्य साथी गधा-असुरों का भी वध किया।

निष्कर्ष

अघासुर, बकासुर और धेनुकासुर का वध केवल राक्षस-वध नहीं, बल्कि मानव स्वभाव के अंधकार, कपट और अज्ञान का प्रतीकात्मक विनाश है।
भगवान श्रीकृष्ण ने इन लीलाओं के माध्यम से सिखाया कि जब मनुष्य का हृदय ईश्वर-भक्ति से आलोकित होता है, तब उसके भीतर के असुर अपने आप नष्ट हो जाते हैं।

ये कथाएँ हमें यह भी बताती हैं कि —

“ईश्वर की कृपा से सबसे भयंकर पापी भी मोक्ष का अधिकारी बन सकता है, यदि वह अंततः उनके चरणों में समर्पित हो जाए।”

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