ईश्वर को प्राप्त करने के सबसे सरल मार्ग कौन से हैं? | शास्त्रों और संतों के विचार

कलियुग, जिसे भक्ति का युग कहा गया है, में ईश्वर की प्राप्ति का मार्ग उतना कठिन नहीं जितना अन्य युगों में था। जहाँ सत्ययुग में ध्यान, त्रेतायुग में यज्ञ, द्वापर में आराधना और पूजा को प्रधानता दी गई थी, वहीं कलियुग में केवल भक्ति और नाम-स्मरण ही मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है।
इस सत्य को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत महापुराण और वेदों में स्पष्ट किया है, तथा भारत के महान संत — श्री प्रेमानंद जी महाराज, श्री मोरारी बापू, संत तुलसीदास जी, संत कबीरदास जी, संत ज्ञानेश्वर महाराज, रामकृष्ण परमहंस, संत रमानुजाचार्य, संत मीरा बाई, संत तुकाराम, संत रविदास जी  और जगद्गुरु शंकराचार्य भगवान — ने भी अपने उपदेशों में इसी सत्य को प्रतिपादित किया है।

श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार — कलियुग में भक्ति ही सर्वोत्तम मार्ग

श्रीमद्भागवत महापुराण (12.3.51) में भगवान शुकदेव जी ने कहा है:

कृतयां ध्यानयोगेन त्रेतायां यज्ञमैः प्रभो।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् हरिकीर्ययाः॥

अर्थात् —
सत्ययुग में ध्यान, त्रेतायुग में यज्ञ, द्वापर में पूजा और कलियुग में केवल हरि-कीर्तन (नाम-स्मरण) से ही भगवान की प्राप्ति होती है।

यह श्लोक इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि कलियुग में कठोर तप, व्रत या यज्ञ की अपेक्षा, नाम-स्मरण और भक्ति ही सर्वोत्तम मार्ग हैं, क्योंकि इस युग में मनुष्य का मन चंचल और समय सीमित है।

नाम-स्मरण और भक्ति का महत्व — श्री प्रेमानंद जी महाराज का दृष्टिकोण

श्री प्रेमानंद जी महाराज (वृंदावन) के अनुसार —

“कलियुग में भक्ति ही भगवान तक पहुँचने का सबसे सरल और सुलभ मार्ग है। जो प्रेमपूर्वक भगवान का नाम जपता है, भगवान उसी के हृदय में प्रकट होते हैं।”

महाराज जी प्रायः भागवत महापुराण (11.5.32) का यह श्लोक उद्धृत करते हैं —

कृतसाध्याः हि पुरुषा ये ह्यन्ये तत्त्ववित् जनाः।
कलौ तु नाममात्रेण पूज्यन्ते परमेष्ठिनः॥

अर्थात् —
पूर्व युगों में लोग तप, ज्ञान या यज्ञ से भगवान को प्राप्त करते थे, लेकिन कलियुग में केवल भगवान के नाम का स्मरण ही पर्याप्त है।

उनके अनुसार, “नाम-स्मरण ही साक्षात् भगवान का रूप है। जब नाम हृदय में बसता है, तो भगवान स्वयं उसमें प्रकट होते हैं।”

मोरारी बापू के अनुसार — राम कथा ही साक्षात् ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग

श्री मोरारी बापू कहते हैं —

“राम कथा केवल कथा नहीं, यह आत्मा की यात्रा है — ‘मैं कौन हूँ’ से लेकर ‘वह कौन है’ तक।”

वे रामचरितमानस के इस दोहे को उद्धृत करते हैं —

कलियुग केवल नाम आधारा।
सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा॥
रामचरितमानस (बालकांड, दोहा 21)

अर्थात् —
कलियुग में केवल नाम का ही आधार है; जो मनुष्य श्रद्धा और प्रेम से भगवान का नाम स्मरण करता है, वह संसार सागर से पार हो जाता है।

मोरारी बापू का मानना है कि “सत्संग, कथा, और भक्ति का संगम ही कलियुग का यज्ञ है।” जो व्यक्ति प्रेमपूर्वक कथा सुनता है और ‘राम नाम’ जपता है, वह सहज ही ईश्वर के निकट पहुँच जाता है।

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शंकराचार्य भगवान के अनुसार — आत्मज्ञान और भक्ति का समन्वय

आदि शंकराचार्य भगवान ने विवेकचूडामणि और भज गोविन्दम् स्तोत्र में ईश्वर प्राप्ति का रहस्य बताया है। उनके अनुसार, केवल ज्ञान पर्याप्त नहीं, ज्ञान को भक्ति और अनुग्रह से पोषित होना चाहिए।

भज गोविन्दं भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढमते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ्करणे॥

अर्थात् —
हे मूढ़ मानव! भगवान गोविंद का भजन कर, क्योंकि मृत्यु के समय शास्त्रों का ज्ञान तुझे नहीं बचा पाएगा, केवल भक्ति ही रक्षा करेगी।

शंकराचार्य जी का यह मत स्पष्ट करता है कि ज्ञान की पराकाष्ठा भी भक्ति में ही निहित है। वेदांत का सार यही है — “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः।”
परंतु जब यह ज्ञान प्रेम में परिवर्तित होता है, तभी वह ईश्वर-साक्षात्कार का माध्यम बनता है।

तुलसीदास जी का मत — “नाम” ही कलियुग में परम साधन

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस और विनयपत्रिका में स्पष्ट कहा है कि कलियुग में नाम-स्मरण ही परम भक्ति है।
वे कहते हैं —

कलियुग केवल नाम आधारा,
सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा॥
रामचरितमानस (बालकांड, दोहा 21)

अर्थात् — कलियुग में केवल भगवान के नाम का स्मरण ही मनुष्य को संसार-सागर से पार ले जाने में समर्थ है।

तुलसीदास जी आगे कहते हैं —

“नामु सुमिरि पावहि प्रभु पद नेहू,
हरषहिं सुनि हरिजन मनु मेहू।”

उनके अनुसार, भक्ति का मार्ग न तो शास्त्रीय ज्ञान से प्राप्त होता है, न यज्ञ से, बल्कि केवल श्रद्धा और नाम-स्मरण से — जो सहज और सर्वसुलभ है।

संत कबीरदास जी — “सहज समाधि” और नाम का महत्व

संत कबीरदास जी, जो ज्ञान और भक्ति दोनों के प्रतीक हैं, कहते हैं —

“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय॥”

अर्थात् — पुस्तक पढ़ने से कोई ईश्वर को नहीं जान पाता, ईश्वर तो प्रेम के ढाई अक्षरों में बसता है।

कबीर जी के अनुसार, ईश्वर को पाने का सबसे सरल मार्ग है —
सहज योग और सच्चा प्रेम।
उनका यह प्रसिद्ध दोहा इस सत्य को प्रतिपादित करता है —

“जहाँ प्रेम तहँ राम है, जहाँ राम तहँ नाहीं दुःख।
जहाँ दुःख तहँ दया नहीं, जहाँ दया तहँ सुख॥”

अर्थात् — जहाँ प्रेम है, वहाँ राम हैं। जब मन में दया और करुणा जागृत होती है, वहीं ईश्वर का निवास होता है।

संत ज्ञानेश्वर महाराज — ‘अहंकार का विसर्जन ही भक्ति है’

संत ज्ञानेश्वर महाराज (जिन्होंने “ज्ञानेश्वरी” लिखी, जो भगवद्गीता पर उनकी मराठी टीका है) कहते हैं कि —

“भगवान को पाना किसी साधन से नहीं, बल्कि ‘अहंकार छोड़ देने’ से होता है।”

उनके शब्दों में —

“जो अपने को शून्य कर लेता है, वही ईश्वर से भर जाता है।”

वे यह भी कहते हैं कि जब मनुष्य अपने भीतर के अहंकार को समाप्त कर देता है, तब उसका हृदय भक्ति का मंदिर बन जाता है।

रामकृष्ण परमहंस — “प्रेम ही साक्षात् भगवान है”

रामकृष्ण परमहंस जी कहते हैं —

“ईश्वर किसी तीर्थ या ग्रंथ में नहीं, वह उस प्रेम में बसता है जहाँ लोभ, मोह, द्वेष न हो।”

उनका उपदेश था कि —

“भक्ति ही ईश्वर तक पहुँचने का सबसे छोटा और सीधा रास्ता है। भक्त और भगवान के बीच केवल एक पर्दा है — अहंकार।”

उनके अनुसार, ईश्वर को पाने के लिए हृदय को शिशु जैसा बना लेना चाहिए — निष्कपट, सरल और प्रेममय।

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संत रमानुजाचार्य — “प्रपत्ति (पूर्ण आत्मसमर्पण)” ही मुक्ति का द्वार

संत रमानुजाचार्य ने “विशिष्टाद्वैत दर्शन” में कहा है कि —

“ज्ञान से अधिक प्रभावी है प्रपत्ति, यानी ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण।”

वे कहते हैं —

“प्रपन्नो न भवेत् दुःखी, न च बन्धनगतो नरः।”
श्रीभाष्य

अर्थात् — जो व्यक्ति ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण कर देता है, वह संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

रमानुजाचार्य का मार्ग “शरणागति” कहलाता है — जहाँ भक्त ईश्वर को अपना सर्वस्व मानकर उनकी इच्छा में लीन हो जाता है।

मीरा बाई — “प्रेम और समर्पण” ही ईश्वर का मार्ग

संत मीरा बाई का सम्पूर्ण जीवन इस सत्य का साक्षात उदाहरण है।
वे कहती हैं —

“मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अविनाशी॥”

उनके अनुसार, ईश्वर को पाने का मार्ग केवल प्रेम और पूर्ण समर्पण है, न कि तर्क या बाह्य दिखावा।
मीरा का प्रेम “सांप्रदायिक सीमाओं” से परे था — वे कहती थीं:

“पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।”
“प्रेम बिना भक्ति अधूरी है, और समर्पण बिना प्रेम अधूरा है।”

संत रविदास जी — “ईश्वर हर हृदय में है”

संत रविदास जी ने कहा —

“मन चंगा तो कठौती में गंगा।”

अर्थात् — यदि मन शुद्ध है, तो वहीं ईश्वर का निवास है, फिर किसी बाहरी यात्रा की आवश्यकता नहीं।

उनके अनुसार, ईश्वर को पाने का मार्ग न तो कठिन साधनाओं से है और न ही तीर्थयात्राओं से, बल्कि सच्चे मन और करुणा से है।

“ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न।
छोट-बड़ा सब सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न॥”

इस दोहे से वे यह सिखाते हैं कि ईश्वर की प्राप्ति तभी संभव है जब मनुष्य सबमें एक ही आत्मा देखे।

संत तुकाराम महाराज — “नाम ही ब्रह्म है”

संत तुकाराम जी ने कहा —

“नाम स्मरण से सब मिलते हैं,
जो नाम लेता है वही पवित्र होता है।”

उनके अनुसार, “नाम ही ब्रह्म है।”
जब हम प्रेमपूर्वक “विट्ठल-विट्ठल” या “राम-राम” कहते हैं, तो वही नाम ब्रह्म रूप में हृदय में उतर जाता है।

श्रीमद्भागवत के अनुसार कलियुग का विशेष वरदान — सरल भक्ति मार्ग

भगवान स्वयं कहते हैं —

कलौ दोषनिधे राजन् अस्ति ह्येको महागुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत्॥
श्रीमद्भागवत महापुराण (12.3.51)

अर्थात् —
हे राजन्! कलियुग दोषों का घर है, परंतु एक महान गुण है — केवल ‘कृष्ण नाम’ के कीर्तन से मनुष्य मुक्त होकर परम धाम को प्राप्त कर सकता है।

यह श्लोक बताता है कि कलियुग में कठिन साधनाओं की आवश्यकता नहीं; भगवान का नाम ही मुक्ति का द्वार है।

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कलियुग में ईश्वर प्राप्ति के तीन सरल मार्ग (शास्त्र और संतों के अनुसार):

  1. नाम-स्मरण (हरि नाम जप):
    — ‘राम’, ‘कृष्ण’, ‘शिव’, ‘नारायण’ जैसे नामों का जप मन को पवित्र करता है।
    श्रीमद्भागवत के अनुसार — “हरिनाम संकीर्तनं यत्नेन कुरुते नरः।”
  2. सत्संग और कथा श्रवण:
    — श्रीमद्भागवत, रामचरितमानस, या श्रीमद्भगवद्गीता का श्रवण आत्मा को जागृत करता है।
    मोरारी बापू कहते हैं, “जहाँ कथा है, वहाँ करुणा है, और जहाँ करुणा है, वहाँ ईश्वर है।”
  3. निष्काम प्रेम और सेवा:
    शंकराचार्य और प्रेमानंद जी महाराज दोनों कहते हैं कि सेवा ही भक्ति का रूपांतरण है।
    जब सेवा में अहंकार नहीं होता, तभी वह ईश्वर तक पहुँचाती है।

निष्कर्ष

ईश्वर तक पहुँचने के अनगिनत मार्ग हैं, परंतु कलियुग में भक्ति, नाम-स्मरण और प्रेम ही वह सीढ़ी है, जिससे मनुष्य सहज रूप से परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है।

जैसा कि श्रीमद्भागवत कहता है —

“यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।”
भगवद्गीता (18.78)

जहाँ भगवान का नाम है, वहाँ शक्ति, शांति और मुक्ति है।

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