छठ पूजा क्या है और क्यों मनाई जाती है? जानिए इसका महत्व और इतिहास

छठ पूजा, जिसे सूर्य षष्ठी व्रत भी कहा जाता है, हिंदू धर्म का एक अत्यंत पवित्र और वैदिक पर्व है। यह पर्व भगवान सूर्य देव और छठी मैया (उषा या प्रकृति देवी) की उपासना के लिए मनाया जाता है। प्राचीन ग्रंथों, जैसे कि ऋग्वेद, महाभारत, और स्कंद पुराण, में सूर्य उपासना का विस्तृत वर्णन मिलता है। छठ पूजा का मूल उद्देश्य सूर्य देव की आराधना के माध्यम से जीवन में ऊर्जा, स्वास्थ्य, संतान सुख, और समृद्धि की प्राप्ति करना है।

छठ पूजा का शास्त्रीय आधार और उत्पत्ति

छठ पूजा की परंपरा वैदिक काल से जुड़ी हुई है। ऋग्वेद में ‘सूर्योपासना’ का उल्लेख आता है, जहाँ सूर्य को “सर्वद्रष्टा”, “जीवात्मा का साक्षी” और “अंधकार का नाशक” कहा गया है —

ऋग्वेद (10.37.1) में कहा गया है:
“उद्यन्नद्य मित्रमहाऽरोहन्नुत्तरां दिवम्।
हृद्रोगं मम सूर्य हरिमाणं च नाशय॥”

अर्थात् — “हे सूर्य देव! आप जब उदित होते हैं, तब हमारे हृदय के रोग और दुखों को दूर करते हैं।”

इसी वैदिक सूर्योपासना की परंपरा कालांतर में छठ पर्व के रूप में विकसित हुई।

महाभारत और सूर्य उपासना का प्रसंग

महाभारत के कर्ण पर्व में उल्लेख है कि कुंती ने सूर्य देव की उपासना करके दिव्य तेजस्वी पुत्र कर्ण की प्राप्ति की थी। इस व्रत को सूर्य षष्ठी व्रत कहा गया, जो बाद में छठ पूजा के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

“ततः सूर्यं समालभ्य कुंती पुत्रमजायत।”
महाभारत, आदिपर्व

कहा जाता है कि छठ पूजा की यह परंपरा कुंती और द्रौपदी दोनों ने निभाई थी। द्रौपदी ने भी पांडवों की विजय के लिए सूर्यदेव की उपासना की थी।

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छठी मैया कौन हैं?

छठी मैया को देवी उषा या प्रकृति देवी कहा जाता है, जो सूर्यदेव की बहन मानी जाती हैं। देवी भागवत पुराण में उल्लेख है कि देवी उषा प्रकृति की षष्ठी शक्ति हैं, जो संतति की रक्षक और मातृत्व की प्रतीक हैं।

देवी भागवत पुराण (स्कंध 9) में कहा गया है:
“षष्ठ्यष्टमी च देवीनां पूजनं मोक्षदं परम्।”
अर्थात् — “षष्ठी तिथि को देवी की पूजा सर्वोच्च फल देने वाली और मोक्ष प्रदान करने वाली है।”

इसलिए छठ पूजा को केवल सूर्य की उपासना नहीं, बल्कि सूर्य की सहचरी उषा देवी की भी आराधना माना गया है।

छठ पूजा का पौराणिक महत्व और धार्मिक उद्देश्य

छठ पर्व न केवल सूर्योपासना है, बल्कि यह प्रकृति, जल, वायु, और पंचतत्वों की पूजा का भी प्रतीक है। सूर्य, जो समस्त जीव-जगत का जीवनदाता है, उसकी आराधना करके मनुष्य जीवन, स्वास्थ्य और समृद्धि की प्राप्ति की कामना करता है।
स्कंद पुराण में कहा गया है कि —

“सूर्यस्यार्चनं ये कुर्वन्ति न ते म्रियन्ति दुःखतः।”
अर्थात् — “जो मनुष्य सूर्य देव की उपासना करते हैं, वे दुःख और रोगों से मुक्त रहते हैं।”

छठ पूजा की परंपरा और आचार-विचार

छठ पूजा चार दिनों तक चलने वाला व्रत है, जिसमें अत्यंत शुद्धता, संयम और आत्मसंयम का पालन किया जाता है। व्रती (मुख्य रूप से महिलाएँ) नंगे पाँव चलकर घाट तक जाती हैं, उपवास रखती हैं, और जल में खड़े होकर सूर्य देव को अर्घ्य देती हैं।

  1. नहाय-खाय (पहला दिन):
    इस दिन व्रती पवित्र स्नान करती हैं और सात्विक भोजन ग्रहण करती हैं। यह दिन शरीर और मन की शुद्धि का प्रतीक है।
  2. खरना (दूसरा दिन):
    व्रती पूरे दिन निर्जल उपवास रखती हैं और सूर्यास्त के बाद गुड़ और चावल की खीर का भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करती हैं।
  3. संध्या अर्घ्य (तीसरा दिन):
    यह दिन सबसे महत्वपूर्ण होता है। व्रती अस्ताचल सूर्य (डूबते सूर्य) को अर्घ्य देती हैं और परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करती हैं।
  4. उषा अर्घ्य (चौथा दिन):
    अगले दिन प्रातःकाल उदयमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। यह प्रकाश, नई शुरुआत और जीवन के पुनर्जागरण का प्रतीक है।

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छठ पूजा का सामाजिक और पर्यावरणीय महत्व

छठ पूजा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मानव और प्रकृति के सामंजस्य का प्रतीक है। इसमें प्रयुक्त वस्तुएँ — फल, गन्ना, मिट्टी का दीया, बाँस की सूप — सभी प्राकृतिक और पर्यावरण के अनुकूल होती हैं। इस प्रकार, यह पर्व हमें पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी देता है।

इसके अतिरिक्त, यह त्योहार सामाजिक एकता का भी प्रतीक है। इसमें जाति, लिंग या आर्थिक भेदभाव नहीं होता — सभी एक ही घाट पर समान श्रद्धा से सूर्य को अर्घ्य देते हैं।

निष्कर्ष 

छठ पूजा वैदिक परंपरा से जुड़ा वह पर्व है, जो भक्ति, आत्मसंयम और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है। यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर की ऊर्जा, आत्मशक्ति और विश्वास को जागृत करने का माध्यम है।
जैसा कि ऋग्वेद में कहा गया है —

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