बंगाल की दुर्गा पूजा 2025: भव्य उत्सव, परंपरा और सांस्कृतिक महत्व

शारदीय नवरात्र, हिंदू धर्म का एक प्रमुख त्योहार, भारत के विभिन्न हिस्सों में उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है। इस दौरान माँ दुर्गा की पूजा नौ दिनों तक विभिन्न रूपों में की जाती है। बंगाल में यह त्योहार ‘दुर्गा पूजा’ के रूप में विशेष रूप से प्रसिद्ध है, जो अपनी भव्यता, सांस्कृतिक समृद्धि और सामुदायिक एकता के लिए विश्वभर में जाना जाता है।
2025 में शारदीय नवरात्र 22 सितंबर से शुरू होकर 30 सितंबर तक चलेगा, और बंगाल की दुर्गा पूजा इस दौरान अपने चरम पर होगी। इस लेख में हम बंगाल की दुर्गा पूजा की परंपराओं, पंडाल सजावट, मूर्ति निर्माण, सांस्कृतिक आयोजनों और अन्य क्षेत्रों की पूजा से इसके अंतर पर प्रकाश डालेंगे।
बंगाल में दुर्गा पूजा की परंपरा
बंगाल में दुर्गा पूजा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव है, जो बंगाली संस्कृति की आत्मा को दर्शाता है। यह त्योहार मुख्य रूप से नवरात्र के अंतिम पांच दिनों—षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दशमी—को भव्य रूप से मनाया जाता है।
मान्यता है कि माँ दुर्गा अपने मायके (पृथ्वी) आती हैं और असुर महिषासुर का वध कर बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक बनती हैं। बंगाल में यह उत्सव सामुदायिक भागीदारी का उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ हर गली-मोहल्ले में पंडाल बनाए जाते हैं, और लोग एक साथ मिलकर उत्सव की तैयारी करते हैं।
दुर्गा पूजा के पंडाल : भव्य सजावट
दुर्गा पूजा की सबसे आकर्षक विशेषता इसके भव्य पंडाल होते हैं। ये पंडाल अस्थायी मंदिरों की तरह बनाए जाते हैं, जिन्हें थीम-आधारित सजावट के साथ सजाया जाता है। हर साल आयोजक नई और अनूठी थीम्स चुनते हैं, जैसे – पर्यावरण संरक्षण, स्वतंत्रता संग्राम, विश्व धरोहर स्थल, पौराणिक कथाएँ या आधुनिक तकनीकी थीम्स।
कोलकाता, हावड़ा और अन्य शहरों में पंडाल सजावट में लाखों रुपये खर्च किए जाते हैं। कारीगर महीनों पहले से बाँस, कपड़े, लकड़ी और अन्य सामग्रियों से इन्हें तैयार करते हैं।
कुमर्तुली (Kumartuli) क्षेत्र मूर्ति निर्माण और पंडाल सजावट के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ बनाए गए पंडाल और मूर्तियाँ न केवल देश बल्कि विदेशों तक निर्यात होती हैं।
मूर्ति निर्माण की अनूठी कला
दुर्गा पूजा में माँ दुर्गा की मूर्ति निर्माण विशेष महत्व रखता है। मिट्टी, भूसा और बाँस का प्रयोग कर माँ दुर्गा, उनके चारों बच्चों—गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती—तथा महिषासुर की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं।
माँ दुर्गा को दस भुजाओं वाली, शेर पर सवार और महिषासुर का वध करते हुए दर्शाया जाता है। यह रूप “या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता“ मंत्र का मूर्त रूप है।
मूर्ति विसर्जन, जो दशमी को होता है, एक भावनात्मक क्षण होता है। यह माँ के मायके से कैलाश (पति शिव के घर) लौटने का प्रतीक है।
सांस्कृतिक कार्यक्रम और उत्सव की धुन
दुर्गा पूजा केवल पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं है; यह सांस्कृतिक महोत्सव भी है। पंडालों में नृत्य, संगीत, नाटक और कविता पाठ आयोजित किए जाते हैं।
ढाकी (पारंपरिक ढोल वादक) की थाप और धुनुची नृत्य विशेष आकर्षण होते हैं। भक्त मिट्टी की धूपदानी में जलती धूप लेकर नृत्य करते हैं।
साथ ही, भोग प्रसाद जैसे खिचड़ी, लाबड़ा, मिष्ठान्न और बंगाली व्यंजन इस पर्व की विशेषता हैं। सामुदायिक भोज और मेलों में लोग एक-दूसरे से मिलकर खुशियाँ बाँटते हैं।
महालया और चंडी पाठ का महत्व
बंगाल की दुर्गा पूजा की शुरुआत महालया से होती है। इस दिन माँ दुर्गा का पृथ्वी पर आगमन माना जाता है।
- सुबह के समय ‘महिषासुर मर्दिनी’ की संगीतमय चंडी पाठ गूंजती है।
- यह परंपरा बंगालियों के लिए भावनात्मक रूप से गहरी जुड़ी हुई है।
- इस दिन से ही पंडालों और मूर्तियों की तैयारियाँ अंतिम चरण में पहुँच जाती हैं।
विसर्जन का अनुष्ठान और विजयादशमी
दशमी के दिन मूर्तियों का नदी या समुद्र में विसर्जन किया जाता है।
- यह माँ दुर्गा के अपने मायके से कैलाश लौटने का प्रतीक है।
- विसर्जन के समय भक्त “आगामी वर्षे भालो एशो माँ” (अगले वर्ष अच्छे से आना माँ) का जयघोष करते हैं।
- इस दिन बंगाल में सिंदूर खेला की परंपरा होती है, जिसमें विवाहित महिलाएँ माँ दुर्गा को सिंदूर चढ़ाकर एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं।
बंगाल और अन्य क्षेत्रों की पूजा में अंतर
- बंगाल में दुर्गा पूजा सामुदायिक और भव्य रूप में होती है, जबकि उत्तर भारत में उपवास, रामलीला और रावण दहन प्रमुख हैं।
- गुजरात और महाराष्ट्र में नवरात्र का मुख्य आकर्षण गरबा और दांडिया है।
- बंगाल की दुर्गा पूजा सजावट और कला के लिए प्रसिद्ध है, जबकि उत्तर भारत में यह धार्मिक व्रत और रामायण परंपरा से जुड़ी है।
दुर्गा पूजा की लोकप्रियता और वैश्विक पहचान
बंगाल की दुर्गा पूजा की लोकप्रियता का कारण इसकी सांस्कृतिक गहराई है। यह उत्सव न केवल धार्मिक आस्था को मजबूत करता है, बल्कि बंगाली कला, शिल्प और सामुदायिक भावना को भी प्रदर्शित करता है।
2021 में, यूनेस्को ने कोलकाता की दुर्गा पूजा को ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर’ (Intangible Cultural Heritage of Humanity) घोषित किया। इससे इसकी वैश्विक पहचान और भी बढ़ गई।
आज, कोलकाता की दुर्गा पूजा न केवल भारतीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लाखों पर्यटकों और भक्तों को आकर्षित करती है।
निष्कर्ष
शारदीय नवरात्रि 2025 में बंगाल की दुर्गा पूजा केवल धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि आस्था, संस्कृति, कला और सामाजिक एकता का अद्वितीय संगम है। यह उत्सव माँ दुर्गा की शक्ति और महिषासुर पर उनकी विजय का प्रतीक है, जो हमें यह संदेश देता है कि सत्य और धर्म की हमेशा विजय होती है।